वरुण गांधी का ब्लॉग: बहस की 'गायब' होती परंपरा, क्या संसद महज डाकघर बनकर रह गई है?

By वरुण गांधी | Published: April 26, 2022 11:14 AM2022-04-26T11:14:03+5:302022-04-26T11:42:35+5:30

बहस संसदीय लोकतंत्र की घोषित खासियत है. मौजूदा परिस्थिति में ये परंपरा खत्म होती नजर आ रही है. इस साल के हालिया सत्र में तो 129 फीसद आंकी गई पर बहस की संसदीय परंपरा इस दौरान तकरीबन समाप्त हो गई.

Varun Gandhi blog: Challenges before parliamentary democracy in India curret scenario | वरुण गांधी का ब्लॉग: बहस की 'गायब' होती परंपरा, क्या संसद महज डाकघर बनकर रह गई है?

संसदीय लोकतंत्र के सामने पैदा होती चुनौतियां (फाइल फोटो)


भारतीय संसद के 2021 के मानसून सत्र में लोकसभा ने 18 से ज्यादा विधेयकों को औसतन 34 मिनट की चर्चा के साथ मंजूरी दे दी. पीआरएस इंडिया के आंकड़े बताते हैं कि अनिवार्य रक्षा सेवा विधेयक (2021) को लोकसभा में सिर्फ 12 मिनट की बहस के बाद मंजूरी मिल गई जबकि दिवाला और दिवालियापन संहिता (संशोधन) विधेयक (2021) पर महज पांच मिनट बहस हुई. एक भी विधेयक को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया. 

सभी विधेयक ध्वनिमत से पास हुए. संसद की कार्य उत्पादकता का आलम यह है कि वह इस साल के हालिया सत्र में तो 129 फीसद आंकी गई पर बहस की संसदीय परंपरा इस दौरान तकरीबन समाप्त हो गई. क्या संसद महज डाकघर बनकर रह गई है?

विधान पर बहस संसदीय लोकतंत्र की घोषित खासियत है. 2013 में अमेरिका में सीनेटर टेड क्रूज को ओबामाकेयर पर बोलने के लिए संसद में 21 घंटे और 19 मिनट मिले. जब संसदीय कार्यवाही में इस तरह की बहस के लिए अलग से समय दिया जाता है तो आम सहमति बनाते हुए कानून की गुणवत्ता में सुधार का रास्ता साफ होता है. इस बीच, भारत में कृषि कानून निरसन विधेयक-2021 महज आठ मिनट (लोकसभा में तीन मिनट, राज्यसभा में पांच मिनट) में पारित हुआ. 

इस तरह सांसदों की संख्या कर्मचारियों की गिनती तक सीमित होकर रह गई. संविधान बनाने के लिए भारत की संविधान सभा की बहस दिसंबर 1946 को शुरू होकर 166 दिन तक चली, जो जनवरी 1950 में जाकर समाप्त हुई. इस पूरी कवायद का मकसद था कि आदर्श रूप से संसदीय बहस की परंपरा को बहाल रखते हुए उसे मजबूती दी जाए, सांसदों के लिए विवेकसम्मत तरीके से मतदान की इजाजत हो ताकि विवेचना या विमर्श की अपेक्षित प्रक्रिया पुनर्जीवित हो.

एक संसदीय लोकतंत्र को अपनी रचनात्मक दरकार के साथ सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए. वेस्टमिंस्टर में, ब्रिटिश प्रधानमंत्री को हर बुधवार को हाउस ऑफ कॉमन्स में सांसदों के सवालों के जवाब देने होते हैं. यह पटल पर रखे और दूसरे सवालों के अनुपूरक प्रश्नों का मिश्रण होता है, जिसमें प्रधानमंत्री को नहीं पता होता कि कौन से सवाल पूछे जाएंगे. इसका इतना महत्व है कि कोविड-19 के दौरान भी प्रधानमंत्री को वर्चुअली सांसदों के सवालों के जवाब देने पड़े जबकि इस अवधि में भारत में प्रश्नकाल को ही समाप्त कर दिया गया़.

जवाबदेही सुनिश्चित करने का एक और तरीका संसदीय समितियां हैं. अमेरिका में सीनेट और संसदीय समितियां कानूनों की जांच करती हैं, सरकारी नियुक्तियों की पुष्टि करती हैं, तफ्तीश करती हैं और सुनवाई करती हैं. 2013 में यूके में हाउस ऑफ कॉमन्स ने एक सार्वजनिक सुनवाई तंत्र चलाया. इसके तहत जनता एक वेब पोर्टल के माध्यम से मसौदा कानून में टिप्पणियां कर सकती थी. इस प्रक्रिया में 1,400 से अधिक टिप्पणियों के साथ करीब एक हजार लोगों ने भाग लिया. 

इसके उलट सामान्य तौर पर अपने देश में लंबी अवधि की विकास योजनाएं संसदीय जांच के अधीन नहीं हैं और इन्हें सालाना खर्च की घोषणा के तहत मंजूरी मिल जाती है जबकि इस तरह की समितियों को जब भी हस्तक्षेप का मौका है तो बेहतर नतीजे सामने आए हैं.  

संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी खासियत सांसदों को स्वायत्त पहल की इजाजत देना भी है. यह पहल कई बार प्राइवेट मेंबर बिल के तौर पर भी होती है. 2019 के बाद से यूके में सात निजी सदस्य विधेयक पास हुए हैं. यह संख्या कनाडा में छह रही. बात करें भारत की तो 1952 से दोनों सदनों द्वारा केवल 14 निजी सदस्य विधेयक पारित किए गए हैं. दिलचस्प है कि इनमें भी छह विधेयक तब पास हुए जब पंडित नेहरू सत्ता में थे.  

संसद से परे भारत में ज्यादातर सांसदों के लिए उनके निर्वाचन क्षेत्रों में परिवर्तन लाने की क्षमता सीमित है. एमपीएलएडी पर विचार करें, जो सांसदों को स्थानीय जिला प्राधिकरण को चुनिंदा विकास पहलों की सिफारिश करने में सक्षम बनाती है और जिसकी अधिकतम सीमा पांच करोड़ रुपए है, इसकी तथ्यात्मक सच्चाई इस पूरी व्यवस्था और उसकी मंशा पर सवाल खड़ा करती है. देश में 6,38,000 गांवों की संख्या से हिसाब लगाएं तो हर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के हिस्से तकरीबन हजार गांव आएंगे. 

एक अध्ययन के मुताबिक इस तरह खर्च और उसकी उत्पादकता का आलम यह होगा कि बमुश्किल महज तीन मीटर कंक्रीट सड़क का निर्माण प्रत्येक गांव-कस्बे के हिस्से आएगा. सांसदों के लिए क्षेत्रीय विकास के लिहाज से धन और साधन की इस त्रासद सच्चाई का दूसरा दुखद पक्ष यह है कि पिछले डेढ़ साल से सांसदों का क्षेत्रीय विकास के लिए यह पैसा भी नहीं मिल रहा. इसके बदले 6,320 करोड़ की सरकारी बचत का ढोल पीटा जा रहा है.

भारत में औसत संसद सदस्य 25 लाख से अधिक नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जो बोत्सवाना, स्लोवेनिया, एस्टोनिया और भूटान जैसे देशों की आबादी से बड़ा है. 2026 तक, नए सीमांकन और आनुपातिक गणित के हिसाब से लोकसभा की 1000 से अधिक सीटें हो सकती हैं. जाहिर है कि बहस के लिए स्थान और समय दोनों कम पड़ेगा और ऐसे में संसदीय बहस की परंपरा और दरकार के लिए अलग से चिंता करने की जरूरत है.

1956 में फिरोज गांधी ने संसदीय कार्यवाही के तहत प्रेस की आजादी को सुरक्षित करने के लए प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था. आगे चलकर इस बिल ने संसदीय कार्यवाही (संरक्षण और प्रकाशन) कानून (1956) की शक्ल ली़ आदर्श रूप से संसद और उसके सदस्य एक जवाबदेह सरकार चलाने की कोशिश करें, इसके लिए अनुकूलताएं बहाल रहनी चाहिए. 

हमारी संसद नए भारत की बदलती आकांक्षाओं, बेचैनी और महत्वाकांक्षा को प्रतिबिंबित करे, यह दरकार अगर खारिज हुई तो यह संसदीय लोकतंत्र के लिए तो अच्छा नहीं ही होगा, यह नौबत भी सामने आ सकती है कि विधायिका सीधे-सीधे कार्यपालिका की मोहताजी में काम करने लगे. ऐसे खतरे के प्रति सचेत होना संसदीय लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह होना है.

Web Title: Varun Gandhi blog: Challenges before parliamentary democracy in India curret scenario

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