Uttar Pradesh BJP: अमित शाह-सीएम योगी के सौहार्द्र से भाजपा में हलचल तेज
By हरीश गुप्ता | Updated: June 19, 2025 05:52 IST2025-06-19T05:52:46+5:302025-06-19T05:52:46+5:30
Uttar Pradesh BJP: 9 जून को योगी ने लखनऊ में एक हाई-प्रोफाइल कार्यक्रम के लिए मुख्य अतिथि के तौर पर शाह को व्यक्तिगत रूप से आमंत्रित करने के लिए दिल्ली की यात्रा की. यह उनके आठ साल के कार्यकाल में पहली बार था.

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Uttar Pradesh BJP: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बीच लखनऊ में राज्यस्तरीय समारोह में जिस तरह का सौहार्द्र नजर आया, उससे राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गई है. इससे भाजपा के दो दिग्गजों के बीच रणनीतिक पुनर्संरचना की अटकलों को बल मिला है. 9 जून को योगी ने लखनऊ में एक हाई-प्रोफाइल कार्यक्रम के लिए मुख्य अतिथि के तौर पर शाह को व्यक्तिगत रूप से आमंत्रित करने के लिए दिल्ली की यात्रा की. यह उनके आठ साल के कार्यकाल में पहली बार था.
दंगों का गढ़ माना जाने वाला उत्तर प्रदेश दंगा-मुक्त हो चुका है: माननीय केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री श्री @AmitShah जी pic.twitter.com/RXMPTmHwe0
— Yogi Adityanath (@myogiadityanath) June 15, 2025
शाह ने उनकी बात मान ली और 15 जून को 60244 नए भर्ती हुए यूपी पुलिस कांस्टेबलों को नियुक्ति पत्र सौंपे. यह महज एक औपचारिक उपस्थिति से कहीं बढ़कर था. दोनों नेताओं के बीच तनाव की लंबे समय से चल रही अटकलों की पृष्ठभूमि में अचानक से यह सौहार्द्रपूर्ण प्रदर्शन हुआ है. वर्षों से भाजपा में शीत युद्ध की चर्चा जोरों पर है.
योगी के बढ़ते कद से दिल्ली की असहजता, केंद्र के साथ महत्वपूर्ण नियुक्तियों को मंजूरी देने में उनकी अनिच्छा और पूर्णकालिक डीजीपी की नियुक्ति में उनकी पांच साल की देरी ने इस धारणा को और मजबूत किया है. आपसी अविश्वास और असहजता की कहानियां अंतहीन हैं. कई लोग इस टकराव का कारण यह मानते हैं कि मोदी के बाद की भाजपा में शाह और योगी दोनों को मजबूत दावेदार के रूप में देखा जा रहा है. वैचारिक मतभेदों और विपरीत राजनीतिक शैलियों से प्रेरित उनकी कथित प्रतिद्वंद्विता लगातार चर्चा का विषय रही है.
— Yogi Adityanath (@myogiadityanath) June 15, 2025
अब तक, उनका एक साथ दिखना मुख्य रूप से केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा आयोजित कार्यक्रमों तक ही सीमित था - जैसे फोरेंसिक संस्थान का शिलान्यास समारोह और अखिल भारतीय डीजीपी की बैठक. लेकिन इस बार पहल दिल्ली से नहीं, लखनऊ से हुई. यह एक अस्थायी दिखावा है या गहरा पुनर्गठन, यह देखना बाकी है.
लेकिन एक बात स्पष्ट है - शाह-योगी के सौहार्द्र ने कहानी को फिर से शुरू किया है और भाजपा की भविष्य की सत्ता गतिशीलता में नई अटकलों को जन्म दिया है. यह भी कानाफूसी है कि यह घटनाक्रम योगी को शीर्ष नेतृत्व द्वारा लाइन में आने के लिए प्रेरित करने के बाद हुआ.
जंतर-मंतर से लेकर चंडीगढ़ बंगले तक
क्या आपको वे पुराने दिन याद हैं जब सत्येंद्र जैन अपने गुरु अरविंद केजरीवाल के साथ मिलकर दिल्ली की राजनीति में केवल आदर्शवाद और छोटी-मोटी रैलियों के साथ छा गए थे? आज की बात करें तो हमारे एक समय के मिशनरी व्यक्ति चंडीगढ़ में अपने आलीशान सरकारी बंगले से चुपचाप पंजाब के स्वास्थ्य विभाग का काम देख रहे हैं.
जी हां, यह सही है: वही व्यक्ति जो दिल्ली में नौकरशाही की लालफीताशाही से जूझता था, अब पंजाब के स्वास्थ्य विभाग में अपनी भूमिका निभा रहा है - इसके लिए किसी सर्जिकल उपकरण की जरूरत नहीं है. उनके पूर्व ‘विशेष कार्य अधिकारी’ शालीन मित्रा भी उनके साथ जुड़ने के लिए उत्तर की ओर चले गए हैं, जो यह दर्शाता है कि यह केवल सप्ताहांत का शौक नहीं है.
लेकिन जैन अपने पंजाबी कारनामे में अकेले नहीं हैं. दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, जो लंबे समय से मुफ्त पाठ्यपुस्तकों के हिमायती हैं, अब पंजाब के शिक्षा विभाग में सलाहकार की भूमिका में आ गए हैं. और कौन भूल सकता है रीना गुप्ता को - जो कभी केजरीवाल के आलोचकों से मौखिक रूप से बहस करती थीं - अब राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर हुक्म चला रही हैं.
यह एक राजनीतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम की तरह है: दिल्ली के दिमागदार लोग पंजाब के लस्सी-प्रेमी गढ़ में अपनी दुकान खोल रहे हैं. दिल्ली के संवाद आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष जैस्मीन शाह अब पंजाब के आईटी विंग में “लीड गवर्नेंस फेलो” (फैंसी!) हैं. इस बीच, कमल बंसल ने दिल्ली में तीर्थयात्रा पैनल की बैठकों की जगह पंजाब में तीर्थ यात्रा समिति की अध्यक्षता संभाली है - वाकई यह एक अद्भुत मोड़ है!
अंदरूनी सूत्रों के अनुसार चंडीगढ़ में कम से कम दस सरकारी फ्लैटों पर अब इन दिल्ली से आयातित लोगों का कब्जा है, जो अपने खुद के ‘सिद्धांतवादी’ नौकरशाही के ब्रांड को लेकर आए हैं. आलोचक इस बात पर हंसते हैं कि एक समय सिस्टम से लड़ने वाले ये लोग अब सिस्टम ही हैं.
बिहार में भाजपा ने दिखाई ताकत
वैश्विक तनावों से अप्रभावित, भारत की राजनीतिक सुर्खियां घरेलू मैदान पर मजबूती से टिकी हैं और भाजपा अक्तूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों से पहले एनडीए के भीतर प्रभुत्व कायम करने में कोई समय बर्बाद नहीं कर रही है. ऑपरेशन सिंदूर के बाद अपने आत्मविश्वास से उत्साहित भाजपा सीट बंटवारे की बातचीत में अपनी ताकत दिखा रही है,
खासकर जद(यू) के साथ. 2020 के विधानसभा चुनावों में जद(यू) के निराशाजनक प्रदर्शन का हवाला देते हुए - जहां उसने 115 सीटों पर चुनाव लड़ा था और केवल 43 पर जीत हासिल की थी - भाजपा इस बार उसे केवल 90-95 सीटें ही दे सकती है. इसके विपरीत, भाजपा ने 2020 में 110 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 74 सीटें हासिल की थीं.
हालांकि भाजपा की योजना लगभग 102-105 निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार उतारने की है, पार्टी ने नीतीश कुमार को भरोसा दिलाया है कि वे मुख्यमंत्री पद का चेहरा बने रहेंगे, लेकिन यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस गारंटी का मतलब यह नहीं है कि जद(यू) को ज्यादा सीटें मिलेंगी. निर्वाचन क्षेत्रवार जीत की संभावना वाले आंतरिक सर्वेक्षण भाजपा की रणनीति का मार्गदर्शन कर रहे हैं.
एलजेपी (रामविलास), जिसने 2020 में 134 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाई, एनडीए में वापस आ गई है और 30 सीटों पर नजर गड़ाए हुए है. हालांकि भाजपा से केवल 20-25 सीटों की पेशकश की उम्मीद है. एलजेपी का 2020 का मिशन - नीतीश कुमार को कमतर आंकना - पूरा हो गया है, और अब इसे गठबंधन अंकगणित के लिए फिर से तैयार किया जा रहा है.
विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) अब एनडीए का हिस्सा नहीं है, इसलिए उसने पहले जिन 18 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उन्हें अन्य सहयोगियों के बीच फिर से बांटा जाएगा, जिसमें जीतन राम मांझी के नेतृत्व वाली हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम), उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएम और संभावित नए प्रवेशकर्ता शामिल हैं. ऐसा लगता है कि भाजपा रूपरेखा बना रही है - और शर्तें तय कर रही है.