कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: अपनी हार से क्या कुछ सबक सीखेगी बसपा?

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: April 2, 2022 09:13 AM2022-04-02T09:13:17+5:302022-04-02T09:16:39+5:30

बसपा सुप्रीमो मायावती की बातें एक ऐसे सेनापति की याद दिलाती है, जो शिकस्त के बावजूद कहता रहे कि उसकी रणनीति तो बहुत लाजवाब थी, लेकिन क्या करे, शत्रुसेना का हमला ऐसा विकट था कि वह धरी की धरी रह गई।

up election 2022 Will BSP learn any lesson from its defeat bjp sp mayawati mulayam singh yadav | कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: अपनी हार से क्या कुछ सबक सीखेगी बसपा?

कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: अपनी हार से क्या कुछ सबक सीखेगी बसपा?

Highlightsउत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा की बुरी तरह हार हुई है।मायावती के अनुसार सपा ने बसपा के भाजपा की बी टीम होने का प्रचार किया है। बसपा सुप्रीमो हार के कारणों की तलाश के नाम पर प्रतिद्वंद्वी दलों पर ठीकरे फोड़कर काम चला रही हैं।

किसी प्रदेश में कई बार सत्ता संभाल चुकी किसी पार्टी को मतदाताओं द्वारा इस तरह नकार दिया जाए कि उसका खाता भी मुश्किल से खुले, तो अपेक्षा की जाती है कि वह इस शिकस्त से सबक लेकर न सिर्फ अपने गिरेबान में झांकेगी, बल्कि अपनी रीति-नीति के खोट दूर करने में भी लगेगी ताकि मतदाताओं का गंवाया हुआ विश्वास फिर से हासिल कर पाए.

लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बुरी तरह खेत रही बहुजन समाज पार्टी ऐसा कुछ भी करती नहीं दिख रही. उसकी सुप्रीमो मायावती ने विधानसभा चुनाव में उसके इतने खराब प्रदर्शन को कल्पनातीत मानते हुए उसकी सभी कमेटियां भंग और अपने भतीजे आकाश आनंद को नेशनल कोआर्डिनेटर बनाकर आधारभूमि उत्तर प्रदेश के लिए तीन स्टेट कोआर्डिनेटर तो नियुक्त कर दिए हैं, लेकिन आत्मावलोकन से उन्हें ऐसा परहेज है कि हार के कारणों की तलाश के नाम पर प्रतिद्वंद्वी दलों पर ठीकरे फोड़कर काम चला रही हैं.

विडंबना यह कि दर्जन भर दलों व संगठनों से गठबंधन और मुस्लिम मतदाताओं के एकतरफा समर्थन के बावजूद समाजवादी पार्टी के सत्ता से दूर रह जाने को तो वे इस रूप में देख रही हैं कि उसमें भाजपा को सत्ता से बेदखल कर पाने का बूता ही नहीं है, लेकिन इस सवाल का कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं दे पा रहीं कि उनकी बसपा में यह बूता है तो उसकी मिट्टी सपा से भी ज्यादा क्यों पलीद हो गई? 

उनके अनुसार सपा ने बसपा के भाजपा की बी टीम होने का प्रचार किया, जबकि भाजपा ने यह कि प्रदेश में बसपा की सरकार न बनने पर वह उन्हें देश का राष्ट्रपति बनवा देगी. इसके अलावा मुस्लिम मतदाताओं ने बसपा की ओर मुंह न करने की गलती की और बसपा के आधार वोटरों के एक बड़े हिस्से ने सपा के जंगल राज की वापसी के अंदेशे में भाजपा को वोट दे दिया.

मायावती की ये बातें एक ऐसे सेनापति की याद दिलाती है, जो शिकस्त के बावजूद कहता रहे कि उसकी रणनीति तो बहुत लाजवाब थी, लेकिन क्या करे, शत्रुसेना का हमला ऐसा विकट था कि वह धरी की धरी रह गई. उसी की तर्ज पर वे कह रही हैं कि क्या करतीं, बसपा के जो प्रतिद्वंद्वी उसके सामने किसी गिनती में नहीं थे, ऐन वक्त में उनका दुष्प्रचार उस पर भारी पड़ गया. 

फिर मुसलमानों के आंख मूंदकर सपा के साथ चले जाने के ही कारण भाजपा फिर से प्रदेश की सत्ता पा गई, वर्ना दलित व मुस्लिम मिलकर उसे सत्ता से बेदखल कर देते.

बेहतर होता कि वे समझतीं कि अगर भाजपा देश के लोकतंत्र व संविधान की वैसी ही दुश्मन है, जैसी उसके साथ मिलकर कई सरकारें बनाने के बावजूद वे बताती हैं, तो उसकी बेदखली न सिर्फ मुस्लिमों बल्कि सारे देशवासियों की साझा जिम्मेदारी है. 

यह जिम्मेदारी इसलिए नहीं निभ पा रही कि उसके हिंदुत्व के मुकाबले जातीय समीकरणों के आधार पर जीतते आ रहे खुद को बहुजनों की चेतना का अलमबरदार बताने वाले दल अरसे तक अपनी ऐसी जीतों को लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता और सोशल इंजीनियरिंग वगैरह की जीत बताने में मगन रहे और अब भाजपा उसका तोड़ ढूंढ लाई है तो उसके एजेंडे के आगे नतमस्तक हो गए हैं या आगे का रास्ता नहीं देख पा रहे.

यही कारण है कि मायावती यह भी नहीं बता रहीं कि पंजाब में सर्वथा अलग स्थितियों में अकाली दल से गठबंधन के बावजूद बसपा क्यों हारी? उत्तर प्रदेश में तो वे अभी भी नए जातीय व धार्मिक समीकरणों से ही लौ लगाए हुए हैं. उन्हें लगता है कि भाजपा के फंदे में जा फंसी कुछ दलित, पिछड़ी व अगड़ी जातियों को मुक्त कराकर अपने पाले में लाने भर से उनका काम चल जाएगा. 

मतलब साफ है कि दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की समग्र एकता अभी भी उनके सपने में नहीं है, बसपा के संस्थापक कांशीराम जिसकी बिना पर पचासी प्रतिशत की एकजुटता से निर्णायक सत्ता व व्यवस्था परिवर्तनों का सपना देखते थे.

बीती शताब्दी के आखिरी दशक में वे और मुलायम मिले यानी सपा-बसपा गठबंधन हुआ तो न सिर्फ ऐसी बहुजन एकता की उम्मीद बंधी बल्कि लगा था कि अब सदियों-सदियों से सामाजिक अन्याय के शिकार होते आ रहे तबकों को इंसाफ मिलकर ही रहेगा. 

लेकिन बाद में वह जैसी परिस्थितियों में टूटा, उसके बाद के नाना घटनाक्रमों ने धरती को उसकी धुरी पर इतना घुमा दिया है कि उनके पचासी बनाम पंद्रह के नारे को पलटकर भाजपा अस्सी बनाम बीस करने और उन्हें मुंह चिढ़ाने लगी है.

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