उमेश चतुर्वेदी का ब्लॉगः सरकारी स्कूलों से मोहभंग क्यों?
By उमेश चतुर्वेदी | Published: January 21, 2019 08:01 AM2019-01-21T08:01:35+5:302019-01-21T08:01:35+5:30
यू डाइस के मुताबिक सरकारी स्कूलों की पढ़ाई से मोहभंग का इन दो राज्यों का आंकड़ा ही अकेले मिलकर 43 फीसदी बैठता है.
चुनावी मौसम की आहट फिजाओं में गूंज रही है. लोक और मीडिया के तमाम माध्यमों के बीच राजनीतिक मुद्दों की बौछार जारी है. लेकिन इसी बीच आई एक खबर पर लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं है. शिक्षा ऐसा मसला है जो हर किसी की जिंदगी से जुड़ा हुआ है. यही वजह है कि सरकारी तंत्न पर इसे लेकर खूब सवाल उठते हैं. लेकिन सरकारी शिक्षा की व्यवस्था में खास सुधार होता नजर नहीं आता. राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन विश्वविद्यालय की ओर से जारी यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफॉर्मेशन सिस्टम यानी यू डाइस की रिपोर्ट ने सरकारी स्तर की प्राथमिक शिक्षा की पोल खोलकर रख दी है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक हजारों करोड़ के सरकारी बजट के बावजूद लोगों का कम से कम प्राथमिक स्तर पर सरकारी शिक्षा से मोहभंग होता जा रहा है. निजी क्षेत्न के स्कूलों से बेहतर शैक्षिक तंत्न और कहीं ज्यादा योग्य प्रशिक्षित अध्यापक होने के बावजूद साल 2015-16 और 2016-17 के बीच सरकारी प्राथमिक स्कूलों को 56.59 लाख विद्यार्थियों ने छोड़ दिया है.
प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूलों को छोड़ने वालों की सबसे ज्यादा संख्या अकेले उत्तर प्रदेश और बिहार से है. यू डाइस के मुताबिक सरकारी स्कूलों की पढ़ाई से मोहभंग का इन दो राज्यों का आंकड़ा ही अकेले मिलकर 43 फीसदी बैठता है. उत्तर प्रदेश के ये आंकड़े योगी सरकार के पहले के हैं.
सवाल यह है कि जब राज्य और केंद्र सरकारें प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए भारी-भरकम बजट का प्रावधान कर रही हैं, तब फिर सरकारी तंत्न की प्राथमिक शिक्षा से मोहभंग क्यों हो रहा है. यह भी उलटबांसी ही है कि उच्च स्तर या तकनीकी शिक्षा के लिए निजी क्षेत्न के गिने-चुने संस्थान ही अच्छे माने जा रहे हैं. जबकि प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए गिने-चुने सरकारी स्कूलों पर ही लोगों का भरोसा है.
उच्च स्तर की शिक्षा के लिए सरकारी तंत्न के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों - संस्थानों की प्रतिष्ठा जिस तरह है, वैसी प्राथमिक तंत्न की शिक्षा में ऐसा नहीं है. खुद सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाने वाले अध्यापक भी अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ाना पसंद नहीं कर रहे. जबकि करीब दो-ढाई दशक पहले तक ऐसा नहीं था.
निजी क्षेत्न की तुलना में कहीं ज्यादा प्रशिक्षित अध्यापक और व्यवस्था होने के बावजूद अगर सरकारी स्कूलों की तरफ विद्यार्थियों की आवाजाही नहीं बढ़ रही है तो इसकी तरफ राजनीतिक दलों को देखना होगा. तभी जाकर सबको सहज शिक्षा उपलब्ध कराने और भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना पूरा हो सकेगा.