शिक्षा की कीमत पर फलता-फूलता दुनिया का रक्षा बजट
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: June 25, 2025 07:09 IST2025-06-25T07:08:46+5:302025-06-25T07:09:28+5:30
गांव के लोग शादियों के तोहफे में अब सिर्फ किताबें देते हैं और अब तक वे लाखों रुपए की किताबें खरीदकर गिफ्ट कर चुके हैं.

शिक्षा की कीमत पर फलता-फूलता दुनिया का रक्षा बजट
हेमधर शर्मा
इन दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें कक्षा के भीतर छात्र छाता लगाकर पढ़ाई करते दिखाई दे रहे हैं. वीडियो प. बंगाल के हुगली जिले में स्थित पंचपाड़ा प्राइमरी स्कूल का बताया जाता है, बारिश में जिसकी छत टपकने से 68 बच्चे क्लास में छाता लगाकर पढ़ने को मजबूर हैं. 1972 से चलने वाले इस स्कूल के तीन कमरे गिर चुके हैं और चौथा भी बेहद जर्जर हालत में है.
दूसरी ओर थिंक टैंक स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की ताजा रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2024 में दुनिया ने रक्षा पर 235 लाख करोड़ रु. खर्च किए. मतलब हर साल प्रति व्यक्ति 29 हजार रु. खर्च हो रहा है. जबकि भारत के रक्षा बजट के मुकाबले यह औसत 47 हजार रु. प्रति व्यक्ति है. उधर पीआरएस इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022-23 में भारत के बड़े राज्य शिक्षा पर औसतन प्रति व्यक्ति 5300 रु. खर्च कर रहे थे. यानी शिक्षा के मुकाबले हर व्यक्ति की रक्षा पर आठ गुना से भी अधिक व्यय हो रहा है!
दुर्भाग्य से हमारे देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर की सरकारों के लिए प्राथमिकता अब शिक्षा नहीं बल्कि रक्षा बजट हो गया है. शासक अपना दबदबा बनाए रखने के लिए दुनिया में भय बढ़ाते हैं, जबकि शिक्षा से निर्भीकता आती है. दुनिया में जितने भी युद्ध होते हैं उनके पीछे अहंकारी शासकों का भय ही होता है. रूस ने नाटो में शामिल होने के भय से यूक्रेन पर हमला किया तो यूक्रेन रूस के भय से नाटो में शामिल होना चाहता था. इजराइल और अमेरिका ने परमाणु बम के भय से ईरान को तबाह किया, जबकि ईरान बार-बार कहता रहा कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है!
विडम्बना यह है कि सुशिक्षित मनुष्यों से राजनेता सबसे ज्यादा खतरा महसूस करते हैं. ट्रम्प का हार्वर्ड जैसे शिक्षा संस्थानों पर नकेल कसने की कोशिश करना अकारण नहीं है. सरकारें लोगों को जागरूक नागरिक के बजाय सिर्फ उपभोक्ता बनाकर रखना चाहती हैं ताकि अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए बिना किसी बड़े जनप्रतिरोध के हजारों-लाखों लोगों को युद्ध में धकेल सकें.
उपभोक्ता सामग्रियों की आज हमारे पास भरमार होती जा रही है. मनोरंजन के इतने साधन जुटा दिए गए हैं कि ज्यादा पैसा खर्च किए बिना भी हम ऐशो-आराम में डूबे रह सकते हैं. लेकिन इसकी कीमत कहां चुकानी पड़ रही है, क्या हमें इसका अहसास है? जनता अगर जागरूक होती तो क्या यह संभव था कि कोई एक खामनेई, नेतन्याहू, जेलेंस्की, पुतिन या ट्रम्प अपने पूरे देश को युद्ध में झोंक पाता? इनमें से कोई भी नेता आज अगर मारा जाए तो उसके पूरे देश की विदेश नीति पलटते देर नहीं लगेगी.
सौभाग्य से सरकार की बैसाखियों के बिना भी लोग शिक्षा को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठा रहे हैं. मणिपुर में कुछ युवाओं ने‘बुक कल्चर नॉर्थईस्ट’ की शुरुआत की है. पिछले दो वर्षों से हिंसा व असुरक्षा के माहौल में रह रहे मणिपुर के लोगों को ये पुस्तक मेले भारी मानसिक राहत प्रदान कर रहे हैं और शायद इसीलिए दूर-दराज के इलाकों में आयोजित होने वाले पुस्तक मेलों में भी भारी भीड़ उमड़ रही है.
इससे उत्साहित इन युवाओं ने मणिपुर के बाद अब असम और नगालैंड में भी इन पुस्तक मेलों का आयोजन शुरू कर दिया है. इधर महाराष्ट्र के सातारा जिले के भिलार गांव ने एक अनूठी प्रथा शुरू की है. गांव के लोग शादियों के तोहफे में अब सिर्फ किताबें देते हैं और अब तक वे लाखों रुपए की किताबें खरीदकर गिफ्ट कर चुके हैं. अब तो इसे ‘पुस्तकों का गांव’ कहा जाने लगा है.
जब तक पंचपाड़ा जैसे स्कूल के बच्चे जर्जर होती इमारतों में भी पढ़ने की अपनी जिद नहीं छोड़ेंगे, बंदूकों के साये में भी पूर्वोत्तर की तरह युवा पुस्तक मेले लगाते रहेंगे और भिलार जैसे गांव के लोग उपहार में किताबें देते रहेंगे, तब तक बारूद के ढेर पर बैठी दुनिया के भी बचे रहने की उम्मीद बनी रहेगी.