कुछ लोगों को कंडोम में भी स्ट्रॉबैरी चाहिए, जबकि देश की एक बड़ी आबादी अब भी भूखी सोती है
By कोमल बड़ोदेकर | Published: May 5, 2018 04:02 PM2018-05-05T16:02:54+5:302018-05-05T16:32:57+5:30
देश की एक बड़ी आबादी सिर्फ खाने के लिए तरस रही है वहीं कुछ लोगों को कंडोम जैसी चीज में भी स्ट्रॉबेरी, बनाना, ग्रीन एप्पल और चॉकलेट चाहिए।
पिछले साल अक्टूबर में झारखंड के सिमडेगा जिले के कालीमाटी गांव की कोयली देवी की 11 साल की मासूम बच्ची भूख से मर गयी। ये मौत हमारे देश में भूख से होने वाली न पहली मौत थी, न ही आखिरी। देश की करीब 23 फीसदी आबादी को अब भी एक वक्त का खाना नहीं मिलता। देश के सभी कामगार वर्गों में आत्महत्या की दर शायद सबसे ज्यादा अन्न उपजाने वाले किसानों के बीच है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कुपोषण वजह से हर साल दस लाख बच्चों की मौत हो जाती है, इसमें गंभीर बात यह है कि कुपोषण से मरने वाले इन बच्चों की उम्र पांच साल से भी कम है।
ये बड़े ही दुख की बात है लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी और शर्म की बात यह है कि एक ओर जहां इतनी बड़ी आबादी सिर्फ खाने के लिए तरस रही है वहीं कुछ लोग कंडोम में भी स्ट्रॉबेरी, बनाना, ग्रीन एप्पल और चॉकलेट फ्लवेर चाहते हैं। टीवी में, अखबारों में और रेडियो में इन फ्लेवर्स वाले कंडोम्स के बड़े-बड़े विज्ञापनों के माध्यम से होने वाला प्रचार प्रसार आम बात है।
खैर इसमें गलती भी कंपनी या टीवी, अखबारों या रेडियों की नहीं है कमी हमारी जागरुकता में ही आ रही है। मैं समझता हूं कि इसका बड़ा कारण फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसी अन्य सोशल मीडिया साइट्स के प्रति हमारा जरूरत से ज्यादा मोह है। किसी वीडियो के वायरल होने पर हम ढेरों प्रतिक्रियाएं देते हुए उसे खूब फॉरवर्ड करते हैं पूरा-पूरा दिन इन्हीं सब में कई पोस्ट कर देते हैं उसमें सेल्फी भी शामिल है हम उस पर आने वाले कमेंट और लाइक्स में ही उलझकर रह गए हैं।
फेसबुक, फेसबुक से निकलकर व्हाट्सऐप, फिर उससे मन भरा तो इंस्टाग्राम। जब सबसे मन भर गया तो ट्विटर या यूट्यूब जैसी चीजों की सर्फिंग में हम अपना समय खपा देते हैं, खाना नहीं भी खाया तो चल जाएगा लेकिन इंटरनेट डाटा खत्म हो गया तो हम इतना बैचेन हो उठते हैं जैसे दुनिया ही खत्म होने वाली हो। दोस्तों से हॉट्स्पोट, वाईफाई पासवर्ड पूछने लगते हैं। तेजी से रीचार्ज वाली दुकान की ओर भागते हैं। रीचार्ज होते ही सब ठीक हो जाता है। हम भूल गए हैं कि सरकार क्या वादा कर के आई थी और वह क्या कर रही है।
आधार के बिना राशन मिलना मुश्किल हो गया है। शहरों की बात छोड़ दें तो गरीब की हालत अब भी बदतर ही नजर आती है। आदिवासी पिछड़े इलाकों या किसानों की हालत भी किसी से छिपी नहीं है। जितनी संवदेनशीलता हम अपने इंटरनेट डेटा, वाईफाई और उसकी स्पीड के लिए दिखाते हैं अगर उसकी जगह थोड़ा भी उस समाज के लिए सोचें या उनके लिए काम करने वाले सरकारी तंत्र से कारण जानने की कोशिश करें तो कुछ हद तक उस पिछड़े हुए 'भारत' को आधुनिक इंडिया की मुख्यधारा में जोड़ने में मदद मिल सकती है।
अगर आकड़ों की बात करें तो 2016 के वैश्विक भूख सूचकांक में 118 देशों में भारत 97वें स्थान पर था। इसी साल देश का कुल अनाज उत्पादन 25.22 करोड़ टन था जो साल 1950-51 के पांच करोड़ टन अनाज से पांच गुना ज्यादा है। उसके बावजूद अब भी स्थिति बद से बदतर ही बनी हुई है। सबसे गंभीर बात यह है कि जहां प्रधानमंत्री मोदी चीख-चीख कर विकास-विकास बोल रहे हैं ऐसे में 20 करोड़ भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या के साथ भारत विश्व में पहले पायदान पर है। वहीं दुनियाभर की 7.1 अरब आबादी में से बारह फीसदी यानी करीब 80 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं।
इन आंकड़ों से गुजरने के बाद जब मैं एक शाम टीवी देखने बैठा तो फ्लेवर्ड कंडोम के विज्ञापन खट्टे लगने लगे। ज़हन में रह-रह कर सवाल उठने लगा कि वो कौन लोग हैं जिनके लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ स्ट्राबेरी, चॉकलेट और ग्रीन एप्पल फ्लेवर वाले कंडोम बनाकर बेच रहे हैं? वो कौन लोग हैं जो ये फ्लेवर्ड कंडोम खरीद रहे हैं?
(लेख में प्रयुक्त आंकड़े सयुंक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की 2017 की रिपोर्ट से लिए गए हैं, फोटो: कोमल बड़ोदेकर)