एन. के. सिंह का ब्लॉग: समझना होगा डॉक्टरों पर हमले के पीछे का समाजशास्त्र 

By एनके सिंह | Published: June 23, 2019 06:52 AM2019-06-23T06:52:48+5:302019-06-23T06:52:48+5:30

राजनीति की फैक्टरी में वैमनस्यता और लंपटवादिता का उत्पादन लगातार  बढ़ रहा है. यह गलती न तो केवल राजनीतिक दलों के नेता की है और न ही ‘नेताओं की नई पौध की’ जो डॉक्टर को मार कर या पुलिस वाले को सत्ता के नाम पर डरा कर या भ्रष्टाचारी समझौता कर समाज में ‘रोबिनहुड’ इमेज बनाता है.

Sociology behind attack on doctors need to be identified | एन. के. सिंह का ब्लॉग: समझना होगा डॉक्टरों पर हमले के पीछे का समाजशास्त्र 

एन. के. सिंह का ब्लॉग: समझना होगा डॉक्टरों पर हमले के पीछे का समाजशास्त्र 

तीन साल पहले हुए एक आकलन के अनुसार भारत में हर 15 परिवार का एक सदस्य किसी न किसी चुनाव-प्रक्रिया में सीधे या परोक्ष रूप से संलग्न रहता है, यानी चुनाव लड़ता है या ‘लड़ाता’ है. यानी 1.70 करोड़ लोग उस राजनीति की फैक्टरी में हैं जो सच में कोई उत्पादन नहीं करते. ये अपने को प्रत्याशी बनाने या जीतने की प्रक्रि या में मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने को अधिक सबल, सक्षम और ‘जरूरत पर’ साथ में खड़ा होने वाला बताने के लिए बचे हुए समय में क्या करते हैं, अगर इसका विश्लेषण हो जाए तो यह भी समझ में आ जाएगा कि डॉक्टर, दलित, कमजोर, अल्पसंख्यक, कम संख्या में पुलिस और गाहे-ब-गाहे पत्नकारों पर ये हमला क्यों कर रहे हैं व हाल के वर्षो में यह हमला बढ़ा क्यों है.  

आबादी घनत्व के हिसाब से भारत दुनिया में 31वें स्थान पर है. देश के 416 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले पूरी दुनिया का औसत 58 है. राज्यों में सर्वाधिक आबादी घनत्व वाले तीन राज्य हैं बिहार 1104, उत्तर प्रदेश 828 और पश्चिम बंगाल 1029. संसाधनों की बेहद कमी, भ्रष्टाचार और सामान्य व्यावहारिक मूल्यों को तो छोड़िए, सैकड़ों साल से प्रचलित कानूनों को तोड़ने को ही शक्ति व प्रभुता का प्रतीक मानना इस समस्या की जड़ में है. दुर्भाग्यवश समाज को भी इनमें से किसी से भी परहेज नहीं है.

अगर स्थानीय सभासद या ग्राम-प्रधान (मुखिया) वोट देने वाली जाति, समूह या मोहल्ले को अपने ही चुनाव-क्षेत्न के अन्य मोहल्ले के मुकाबले तीन घंटे अधिक पानी दिला देता है या सरकारी गोदाम से कुछ कम ब्लैक के पैसे देकर खाद, तो उन्हें ऐतराज नहीं होता बल्कि अच्छा लगता है. अगर स्थानीय विधायक अपने वोटर के 14 साल के बेटे को, जो बगैर लाइसेंस कार चलाते हुए सड़क पर चल रहे किसी बूढ़े व्यक्ति को घायल करने के आरोप में पकड़ कर थाने लाया गया है, कुछ ‘ले देकर’ मामला रफा-दफा करवा देता है तो यह उसका प्रभुत्व या ‘संकट के समय साथ खड़े रहने की’ योग्यता मानी जाएगी और पूरा इलाका उसे वोट देगा.

अगर अपने मोहल्ले के किसी घायल वृद्ध को वह ‘भावी प्रत्याशी’ मदद के नाम पर सरकारी अस्पताल ले गया और वहां डॉक्टर रोगियों की संख्या के कारण उसे तत्काल नहीं देख सका तो यह ‘भावी प्रत्याशी’ उस पर हमला कर देगा अपने गुर्गो के साथ. लंपटवादिता से सामाजिक पहचान और स्वीकार्यता राजनीति की फैक्टरी में लगे लोगों का ‘प्रोफेशनल स्किल’ बन चुका है. आखिर इन कथित नेताओं का धंधा क्यों चलता है? इसका कारण संसाधनों पर दबाव, लोगों का सिस्टम पर विश्वास कम, दबाव पैदा करने पर ज्यादा होना है. जैसे कोलकाता के एनआरएस हॉस्पिटल में या हाल में दिल्ली के एम्स में. आखिर मरीज के परिजनों को डॉक्टरों की प्रोफेशनल निष्ठा पर अगर शक है भी तो क्या हमला उसका इलाज है?

राजनीति की फैक्टरी में वैमनस्यता और लंपटवादिता का उत्पादन लगातार  बढ़ रहा है. यह गलती न तो केवल राजनीतिक दलों के नेता की है और न ही ‘नेताओं की नई पौध की’ जो डॉक्टर को मार कर या पुलिस वाले को सत्ता के नाम पर डरा कर या भ्रष्टाचारी समझौता कर समाज में ‘रोबिनहुड’ इमेज बनाता है. समस्या उस आम सोच की है जो अपने बेटे को बगैर लाइसेंस गाड़ी चलाकर एक्सिडेंट करने के बाद भी थाने से कुछ ले-दे कर छुड़वा देने वाले छुटभैये ‘नेता-दलाल’ को भी मान्यता देती है और फिर वोट भी. जब तक यह भाव समाज का रहेगा, राजनीति की फैक्टरी से यही माल निकलेगा, डॉक्टर पिटता रहेगा और  प्रजातंत्न का मंदिर अपवित्न होता रहेगा. 

Web Title: Sociology behind attack on doctors need to be identified

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