सिद्धार्थ लूथरा का ब्लॉग: नागरिक स्वतंत्रता का लगातार होता हनन
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 26, 2018 08:50 PM2018-12-26T20:50:01+5:302018-12-26T20:50:01+5:30
सुप्रीम कोर्ट को बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में बहुमत से दिए गए निर्णय को 2017 में निजता के मामले में रद्द करने में 40 साल लग गए.
देश में नागरिक स्वतंत्रता में लगातार गिरावट आ रही है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के महान न्यायाधीश एच. आर. खन्ना याद आते हैं, जो आपातकाल के दौरान 1976 के बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में, अपनी असहमति के साथ नागरिकों की आजादी के पक्ष में दृढ़ता के साथ खड़े हुए थे. उन दिनों नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था. तब से सुप्रीम कोर्ट को बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में बहुमत से दिए गए निर्णय को 2017 में निजता के मामले में रद्द करने में 40 साल लग गए.
दशकों से सजा देने वाले कानूनों को अध्ययन या वेिषण कर नहीं बनाया गया. अक्सर सार्वजनिक आक्रोश के दबाव के चलते ये कानून बने. अब इन कानूनों से आपराधिक न्याय प्रणाली को निपटना पड़ रहा है जो पहले से ही काम के बोझ से दबी है. बचाव को इस प्रकार कमजोर किए जाने और कठोर कानूनों को अदालत की स्वीकृति मिलने से सरकार को और भी कठोर कानून बनाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है. इस तरह के कानूनों को लागू करने से निदरेषिता की धारणा कमजोर पड़ी और आरोपियों पर बोझ डाला गया - जो हमारे संवैधानिक लोकाचार के लिए गर्हित है.
हमारे लिए ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 और अन्य प्रक्रियात्मक कानून हैं. अनुच्छेद 21 प्रक्रियात्मक निष्पक्षता के लिए उच्च मानक प्रदान करता है, लेकिन कानून बनाते समय उस मानक को लागू नहीं किया गया है. 1977 में, जब आपातकाल खत्म हुआ, मैं 11 साल का था. आपातकाल के दो वर्षो के दौरान, मेरे स्वर्गीय पिता, जो विख्यात वकील थे, ने गिरफ्तार किए गए कई बंदियों का बचाव किया था. उस समय उन्होंने हमसे देर रात दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुनने के लिए तैयार रहने को कहा था. मुङो अपना वह डर याद है जब एक रात एक सीबीआई अधिकारी हमारे घर आया और मेरे पिता से कहा कि उनके जाने का समय हो गया है. जब मेरे पिता हमें बताने के लिए मुड़े तो उस अधिकारी ने हंसते हुए कहा कि उस अवसर पर उसे केवल एक दोस्त के रूप में यह बताने के लिए भेजा गया था कि उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता था.
जोगिंदर कुमार और डी.के. बसु (1997) के दिशानिर्देशों के बावजूद भारतीयों में अज्ञात गिरफ्तारी का डर बना रहता है. यह समय है कि हम 1976 की न्यायाधीश खन्ना की गौरवशाली असहमति को याद करें और राज्य के सभी अंगों में उस उच्च आदर्श के पालन के लिए काम करें, जिसका परिचय उन्होंने देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था में रहते हुए दिया था. अन्यथा बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में न्यायमूर्ति खन्ना की असहमति केवल एक असहमति भर बनकर रह जाएगी.