शरद जोशी का ब्लॉग: बच्चों की मासूमियत और खुशी
By शरद जोशी | Published: July 20, 2019 06:35 AM2019-07-20T06:35:36+5:302019-07-20T06:35:36+5:30
संत कहते हैं कि बच्चे ईश्वर के रूप हैं, और मां-बाप कहते हैं कि बच्चे शैतान होते हैं. खैर, ईश्वर होते हों या शैतान, पर मैंने जब अहसाना से बातचीत की तो वह न तो मुझे ईश्वर नजर आई और न शैतान ही. बस, अच्छी-भली लड़की थी और कुछ नहीं.
संत कहते हैं कि बच्चे ईश्वर के रूप हैं, और मां-बाप कहते हैं कि बच्चे शैतान होते हैं. खैर, ईश्वर होते हों या शैतान, पर मैंने जब अहसाना से बातचीत की तो वह न तो मुझे ईश्वर नजर आई और न शैतान ही. बस, अच्छी-भली लड़की थी और कुछ नहीं. नेताओं का उच्चस्तरीय अज्ञान और विचित्र-सी बातें, अखबारों की टेढ़ी-तिरछी चालें, व्यक्ति के कंधे पर भागती राजनीति और राजनीति के कंधे पर चढ़े शवों की यात्र से अपने को थोड़ा स्वच्छ करना हो, स्नान करना हो, तो किसी बच्चे से बात करना ज्यादा अच्छा.
इसी कारण सुभाष चौक न जा रजनी से, राजू से मिल लेना अच्छा है. भाषण न सुन किसी की तुतलाती मीठी बोली सुनना अधिक श्रेष्ठ है.
और शाजापुर में जब अहसाना से बातचीत की तो उसमें अक्ल और बचपना दोनों ऐसे पचास प्रतिशत के अनुपात से मिले हैं कि समझ नहीं पड़ता, इससे संजीदा रहकर बोलें या गुड्डे-गुड्डी की चर्चा करें!
मैंने पूछा, ‘‘तुम इंदौर सबके साथ क्यों नहीं आई?’’ तो अपने सांवले भोले चेहरे पर थोड़ी मुस्कान लाकर बोली, ‘‘अगर मैं चली तो घर कौन संभालता?’’
और उसका चेहरा एकाएक ऐसा बन गया, जैसे सारे घर का भार उसके ही कंधे पर है!
मैंने पूछा, ‘‘तुम कभी गुड्डे-गुड्डी खेलती हो? खिलौने अच्छे लगते हैं?’’ ‘‘नहीं, अब नहीं खेलते, यों कभी मिल जाते हैं तो खेल लेते हैं.’’ मुझे हंसी आ गई.
उसकी आंखों से ऐसा लगता था, जैसे यदि मैंने बातचीत के सलीके में जरा गलती की तो वह भांप लेगी, तो कुछ मुझे ऐसा हो जाना पड़ा, जैसे प्रतिष्ठा समेट रहा होऊं! अहसाना बड़ी छोटी-सी है, फ्रॉक पहनती है और अपनी क्लास की मॉनीटर है. बच्चों की बातों को सम्मान से कोई नहीं देखता और इसी कारण प्राय: सामने वाले को यह कहकर टाल दिया जाता है- क्या बच्चे जैसी बातें कर रहे हो? पर अहसाना ने मुहावरा उलटकर रख दिया कि अब मैं किसी बड़े से बात करते समय कह सकता हूं- क्या तुम बच्चे जैसी भी बात करना नहीं जानते?
जब सबको इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि अहसाना से सबको क्यों स्नेह हो जाता है तो वह एकाएक बोल पड़ी, ‘‘अच्छे से अच्छों को मिलकर खुशी होती ही है.’’
और या तो मैं अच्छा नहीं, पर अधिकांश राजनीतिक नेताओं से मिल कर मुङो खुशी नहीं होती.
(रचनाकाल - 1950 का दशक)