ब्लॉग: बना रहेगा राजद्रोह कानून का अस्तित्व
By प्रमोद भार्गव | Published: June 10, 2023 03:16 PM2023-06-10T15:16:13+5:302023-06-10T15:16:24+5:30
सरकार इस सिलसिले में आदर्श दिशा-निर्देश भी जारी करे. 279 पृष्ठीय इस रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि कानून के संभावित दुरुपयोग के संबंध में न्यायालय द्वारा बार-बार की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए ही ये सिफारिशें की गई हैं
राजद्रोह या देशद्रोह कानून को लेकर विधि आयोग की अनुशंसा ने तय कर दिया है कि फिलहाल इस कानून का अस्तित्व बना रहेगा। पिछले साल मई में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-124-ए पर रोक लगा दी थी। इसी धारा के अंतर्गत देशद्रोह का कानून परिभाषित है।
देश के 22वें विधि आयोग ने इसे आवश्यक बताते हुए केंद्र सरकार से अनुशंसा की है कि इसका और कड़ाई से पालन तो किया ही जाए, साथ ही सरकार इसे जरूरी बदलावों के साथ लागू रहने दे। कानून का दुरुपयोग न हो, इसलिए सजा तीन साल से बढ़ाकर उम्रकैद तक कर दी जाए अथवा सात साल की सजा और जुर्माना तय किए जाएं।
सरकार इस सिलसिले में आदर्श दिशा-निर्देश भी जारी करे. 279 पृष्ठीय इस रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि कानून के संभावित दुरुपयोग के संबंध में न्यायालय द्वारा बार-बार की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए ही ये सिफारिशें की गई हैं। दरअसल न्यायालय ने कहा था कि सरकार की निंदा या आलोचना करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह या मानहानि का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
इस कथन से साफ होता है कि देश की न्यायपालिका लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ है. यह बात राजद्रोह एवं मानहानि को परिभाषित करने वाली धारा 124 और 124-ए के परिप्रेक्ष्य में कही गई थी. इसी क्रम में न्यायालय ने धारा 124-ए को निष्क्रिय कर दिया था।
लेकिन आयोग ने राजद्रोह कानून से जुड़ी धारा 124-ए को बहाल रखने की सिफारिश करते हुए, सजा भी बढ़ाने की सिफारिश कर दी है. इन धाराओं में दर्ज मामलों की जांच पुलिस निरीक्षक या इसके ऊपर की श्रेणी के अधिकारी राज्य या केंद्र सरकार की बिना अनुमति के कर सकेंगे.
धारा 124-ए के अंतर्गत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर से नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है. इस धारा के तहत दोषी पर आरोप साबित हो जाए तो उसे तीन साल के कारावास तक की सजा हो सकती है.
1962 में शीर्ष न्यायालय के सात न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ‘केदारनाथ बनाम बिहार राज्य’ प्रकरण में, राजद्रोह के संबंध में ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि ‘विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध अव्यवस्था फैलाने या फिर कानून या व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने या फिर हिंसा को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति या मंशा हो तो उसे राजद्रोह माना जाएगा.’
इसी परिभाषा की परछाईं में हार्दिक पटेल बनाम गुजरात राज्य से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘यदि कोई व्यक्ति अपने भाषण या कथन के मार्फत विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा फैलाने का आवाहन करता है तो उसे राजद्रोह माना जाएगा.’
अदालत के इन फैसलों के अनुक्रम में किसी अन्य देश की प्रशंसा, परमाणु संयंत्रों का विरोध, राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े नहीं होना जैसे आचरण जरूर राजद्रोह नहीं कहे जा सकते हैं, लेकिन ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार, जैसे नारे न केवल राजद्रोह हैं, बल्कि राष्ट्रद्रोही भी है.’
इस परिप्रेक्ष्य में यह समझ लेना भी जरूरी है कि संविधान का अनुच्छेद 19-1 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी जरूर देता है, लेकिन इस पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी लगाया गया है. इस संदर्भ में ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य से जुड़े फैसले में साफतौर से कहा गया है कि ‘बेहतर होगा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक हित व अन्य बृहत्तर सामाजिक हितों के अधीन हो.’
वास्तव में यही बृहत्तर सामाजिक हित राज्य को भारत की संप्रभुता, अखंडता तथा राज्य की सुरक्षा से जोड़ते हैं. अतएव आयोग की सिफारिशों में स्पष्ट है कि राष्ट्रविरोधी और अलगाववादी तत्वों से निपटने में धारा-124-ए
जरूरी है.
जनतंत्र में सरकार से असहमति लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अनिवार्य पहलू है, बशर्ते उसमें राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को चुनौती नहीं हो, साथ ही हिंसा और अराजकता के लिए भी कोई जगह न हो. इस दृष्टि से यदि कोई नागरिक सामाजिक समूह या विपक्षी दल सरकार की आलोचना या नीतिगत बदलाव की बात करता है तो सरकार को उसकी बात न केवल सुनने की जरूरत है, बल्कि यदि कोई नया विचार आता है तो उस परिप्रेक्ष्य में नीतिगत बदलाव किए जाने की जरूरत है.
नए विचार का पुलिसिया दमन तानाशाही प्रवृत्ति का प्रतीक है. इसीलिए किसी कानून की न्यायालय व्याख्या और पुलिसिया परिभाषा में अंतर है. पुलिस जहां कानून को लागू करने के बहाने क्रूरता अपना लेती है, वहीं न्यायालय विधिशास्त्र का ख्याल रखता है. इस लिहाज से कानून के जहां संतुलित उपयोग की जरूरत है, वहीं राजद्रोह जैसे कानून को अपवाद स्वरूप ही अमल में लाने की जरूरत है.