सारंग थत्ते का ब्लॉग: 57 साल पहले विश्वासघात करने वाले चीन पर कैसे करें विश्वास?
By सारंग थत्ते | Published: October 20, 2019 07:49 AM2019-10-20T07:49:03+5:302019-10-20T07:49:03+5:30
उस दिन शनिवार था, 20 अक्तूबर 1962, सुबह के पांच बज चुके थे और भारतीय सीमा पर अचानक चीनी सेना ने आक्रमण कर दिया था. यह आक्रमण उत्तर में लद्दाख और पूरब में नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स) में किया गया था. भारत ने उस समय चीनी आक्रमण के होने का आकलन करने में बहुत बड़ी चूक की थी. आज से 57 साल पहले, तीन सप्ताह लंबे युद्ध में 21 नवंबर को चीन ने बिना शर्त अपनी तरफ से आखिरी गोली दागी.
युद्ध तो खत्म हुआ, लेकिन भारत का लगभग 43,000 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्नफल अक्साई चिन इलाके में तब्दील होकर हमारे मानचित्न से अलग हो गया. यह इलाका लगभग स्विट्जरलैंड जितना बड़ा है. 3250 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे. भारतीय सेना की कमियों की फेहरिस्त काफी लंबी बन चुकी थी. एक हार को मानने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अपने पड़ोसी पर सम्पूर्ण भरोसा करना भारत को महंगा पड़ा.
लगभग 20,000 भारतीय सैनिकों को जल्दबाजी में सीमा पर भेजा गया था. उनका मुकाबला लड़ाई को तैयार 80,000 चीनी सैनिकों से था. भारतीय सेना के पास नक्शों से लेकर गर्म कपड़े, हथियार, गोलाबारूद और रसद की कमी के बारे में इतिहास में लिखा गया है. हम इस युद्ध के लिए तैयार नहीं थे, दरअसल हमने सोचा भी नहीं था कि चीन इस तरह से हमें एक साथ दो मोर्चो पर इतनी बड़ी तादाद में मुकाबले के लिए ललकारेगा.
1962 से पहले छोटी- बड़ी घुसपैठ की वारदात होती रही थी. लेकिन हमने इतने बड़े पैमाने पर चीनी सेना के हिमालय क्षेत्न में पर्वतीय दरे को पार कर भारतीय इलाके में घुस आने की बात को कभी सपने में भी नहीं सोचा था. भारत मानता था कि हिमालय की पर्वतमाला उसके और चीन के बीच एक किस्म की अभेद्य दीवार है.
1950 - 51 के दौर में चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को भारत में शरण देने की वजह से उस समय के चीनी शासक चाऊ एन लाई ने मैक मोहन लाइन को मानने से इनकार किया था और सम्पूर्ण हिमालय की तराई के क्षेत्न पर अपना वर्चस्व मान लिया. तिब्बत की स्वायत्तता पर भी सवाल उठाए थे. सब कुछ चीन के अधिकार क्षेत्न में है, यही उनकी सोच थी. भारत के पहले प्रधानमंत्नी ने 1954 में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांत चीन के समक्ष रखे थे और ‘हिंदी चीनी-भाई भाई’ का नारा बुलंद हुआ था.
1962 की जंग ने भारतीय सशस्त्न सेना को एक सीख दी थी. इसने हमें पर्वतीय इलाकों में सेना के अनुपात की सही जानकारी दी, हमें उस दुर्गम इलाके में सड़क, रेल यातायात, नदियों पर पुल एवं हवाई संपर्क बनाने के लिए हेलीपैड और अग्रिम हवाई पट्टियों को बनाने की ओर सोचने को मजबूर किया था.
वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन ने हालांकि भारत के साथ सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण में कई बैठकों में साथ दिया है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र में कई बार हमें चीन से किरकिरी का सामना करना पड़ा है. पिछले दो वर्षो में डोकलाम में चीनी सेना की घुसपैठ और गुत्थमगुत्था के बाद उसके पीछे हटने की खबर से सभी परिचित हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि चीनी सेना ने हमारी सीमा पर 1962 के बाद एक बार भी गोलीबारी नहीं की है, लेकिन अरुणाचल के हिस्सों पर अपनी पैठ जमाने की बात कर हमेशा यहां पर शांति जरूर भंग की है.
भारत के दौरे पर चीनी नेता पाकिस्तान के आतंकवाद को अपने भाषण से दूर रखते आए हैं. यह राजनय भी हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हमें चीन पर कितना और कब तक भरोसा करना चाहिए. इस माह चीनी राष्ट्रपति के भारत दौरे में सद्भाव जरूर नजर आया है, लेकिन ‘हिंदी चीनी- भाई भाई’ के नारे का 57 साल बाद क्या अब कोई अर्थ बचा है?