एन.के. सिंह का ब्लॉगः केंद्र-राज्य संबंधों में बढ़ते तनाव के खतरे

By एनके सिंह | Published: June 15, 2019 09:10 AM2019-06-15T09:10:55+5:302019-06-15T09:10:55+5:30

भारत के संविधान निर्माण के समय 3 जून, 1947 को संघ शक्ति समिति की दूसरी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया था ‘‘अब जबकि विभाजन एक निर्विवाद सत्य है,

Risks of increasing stress in center-state relations | एन.के. सिंह का ब्लॉगः केंद्र-राज्य संबंधों में बढ़ते तनाव के खतरे

एन.के. सिंह का ब्लॉगः केंद्र-राज्य संबंधों में बढ़ते तनाव के खतरे

भारत के संविधान निर्माण के समय 3 जून, 1947 को संघ शक्ति समिति की दूसरी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया था ‘‘अब जबकि विभाजन एक निर्विवाद सत्य है, हम सर्वसम्मति से इस राय के हैं कि देश के हित के लिए यह घातक होगा कि ऐसा एक कमजोर केंद्रीय शासन हो जो शांति और सबके लिए जरूरी मुद्दों पर समन्वय में अक्षम हो और कि पुख्ता संवैधानिक ढांचा वह है जिसमें परिसंघ के साथ ही एक मजबूत केंद्र हो.’’ शायद इसी भावना से प्रेरित होकर संविधान निर्माताओं ने कुछ ऐसे प्रावधान रखे जो राज्यों के मुकाबले केंद्र को मजबूत पायदान पर रखते हैं.     

गहरे से देखने पर हाल की दो घटनाएं केंद्र और राज्य के बीच बढ़ते तनाव के संकेत हैं. लोकसभा चुनाव के बाद भी प. बंगाल में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है. सूबे के राज्यपाल हाल में दिल्ली दरबार में पेश हो चुके हैं इस अफवाह के साथ कि शायद राज्य में बिगड़ते हालात के बाद राष्ट्रपति शासन का विकल्प केंद्र सोच सकता है. दिल के मरीज एक वृद्ध के अस्पताल में मरने के बाद एक डॉक्टर को एक समुदाय विशेष के लोगों द्वारा घातक रूप से पीटने पर प. बंगाल में डॉक्टरों की हड़ताल हुई, लेकिन मुख्यमंत्नी ममता बनर्जी ने न केवल डॉक्टरों को धमकी दी बल्कि घटना के उग्र होने का आरोप केंद्र में शासन कर रही भाजपा पर थोप दिया. सोशल मीडिया पर घायल डॉक्टर की लहूलुहान फोटो देख कर डॉक्टर भड़क गए. देशव्यापी असर हुआ और स्वास्थ्य सेवाएं एम्स से लेकर निजी अस्पतालों में बंद हो गईं. 

दूसरी घटना में बिहार के मुख्यमंत्नी नीतीश कुमार ने केंद्र से चलाई जाने वाली योजनाओं का विरोध ही नहीं किया है बल्कि यह भी कहा है कि राज्यों को अपनी योजना चलाने की आजादी होनी चाहिए. उनका आरोप है कि केंद्रीय योजनाओं में औसतन 40 प्रतिशत हिस्सा राज्यों को व्यय करना पड़ता है लेकिन श्रेय केंद्र की सरकार को जाता है. नीतीश ने अभी चंद दिनों पहले ही भाजपा के साथ चुनाव लड़ कर अपनी पार्टी को लोकसभा में 16 सीटें दिलाईं. ये बातें उन्हें चुनाव के दौरान नहीं याद आई थीं. ममता भी केंद्र में भाजपा की सरकार की मंत्नी रही थीं और नीतीश भी, लेकिन इन दोनों ने कभी भी केंद्र की किसी योजना पर आक्षेप नहीं लगाया था. यह ‘ब्रrाज्ञान’ उन्हें इस चुनाव में भाजपा को मिली जबर्दस्त देश-व्यापी जीत के बाद आया है. उधर सभी गैर-भाजपा शासित राज्यों ने केंद्र के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है- केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, (चंद्रबाबू के कार्यकाल में आंध्र प्रदेश) और कर्नाटक.     

ऐसे समय में जब देशों की अर्थ-व्यवस्था दुनिया के साथ समेकित हो चुकी हो, जब किसानों की उपज को सही मूल्य दिलाने के लिए कृषि-बाजार को देश-व्यापी बनाने की कवायद चल रही हो, जब केंद्र की नीतियों का राज्यों में व्यापक प्रभाव पड़ रहा हो (उज्ज्वला, फसल बीमा योजना), यह तनाव विकास और जन-कल्याण को बुरी तरह अवरुद्ध कर सकता है. ध्यान रहे कि केंद्र की अधिकांश योजनाओं का अमल राज्य सरकारें करती हैं.  

इतिहास गवाह है कि जब कभी केंद्र की सत्ता ने राज्य की शक्तियों का प्रभुत्व के आधार पर एक सीमा से अधिक दमन किया तो केंद्र ही कमजोर हुआ क्योंकि राज्य की शक्तियां बगावत पर आ गईं. मौर्य शासन से लेकर मुगल शासन तक इस बात का इतिहास गवाह रहा है. अंग्रेजों को यह अहसास पहले नहीं हुआ और मजबूत केंद्र की नीति के तहत चार्टर एक्ट ऑफ इंडिया, 1833 बना कर सारी शक्तियां केंद्र में निहित करने लगा. डलहौजी ने इस केंद्रीकरण के शिकंजे को और मजबूत किया सुधार के नाम पर. नतीजा था 1857 का विद्रोह. अंग्रेज सकते में थे और अगले ही साल पूरा शासन सीधे ब्रिटिश ताज के हाथों आ गया. अगले तीन सालों में अंग्रेज हुकूमत को समझ में आ गया कि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण देश में स्थनीय शक्तियों को दबाकर पूर्ण केंद्रीकरण करके शासन करना असंभव है, इसके लिए इन्होंने राजाओं की सहायता ली जो कहने को तो संप्रभु थे लेकिन हाथ से शक्तियां गायब थीं. अंग्रेजों ने अगले 90 साल इसी तरह सफलतापूर्वक शासन किया. 

लेकिन आज प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी को या भाजपा को जो जन-स्वीकार्यता मिल रही है वह पुराने जमाने का ‘राजा-प्रजा’ भाव नहीं है क्योंकि प्रजातंत्न में लालू यादव, जयललिता, मायावती भी समय-समय पर यह जन-स्वीकार्यता हासिल कर चुके हैं. यह उनकी गलती थी/है कि वे जनता को विकास से शक्ति देने के बजाय भावना का इंजेक्शन लगा कर झूठे सशक्तिकरण के नशे के जरिये सत्ता में काबिज रहना चाहते थे.

क्या वह समय आ गया है जब संविधान में दिए गए केंद्र-राज्य संबंधों को एक बार फिर से परिभाषित किया जाए ताकि सार्थक क्षेत्नीय भावनाएं प्रतिक्रियात्मक बहुसंख्यकवाद की बाढ़ में बह न जाएं? केंद्र को अधिक शक्ति देने के पीछे संविधान निर्माताओं ने भी मजबूत राष्ट्र का तर्क दिया था. मोदी उसी तर्क का सहारा ले रहे हैं. क्या 70 साल में राष्ट्र की सुरक्षा सबसे बड़ा कारण है एक ऐसे मुल्क में जो गरीबी और अज्ञानता में कराह रहा है?

Web Title: Risks of increasing stress in center-state relations

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