उमेश चतुर्वेदी का ब्लॉग: क्षत्रपों के राष्ट्रीय नेता बनने के मंसूबे कितने सफल होंगे?
By उमेश चतुर्वेदी | Published: October 20, 2021 01:00 PM2021-10-20T13:00:15+5:302021-10-20T13:03:03+5:30
इन दिनों तीन क्षेत्रीय दल ऐसे हैं, जिनकी महत्वाकांक्षा छुपाए नहीं छुप रही है. अपने क्षेत्र या राज्य की सीमाओं के बाहर सफल राजनीतिक कुलांचे भरने के लिए वे लगातार कोशिश कर रहे हैं.
भारतीय राजनीति में इन दिनों कुछ ऐसी हलचलें भी हैं, जिनके दूरगामी संदेशों को या तो देखने की कोशिश नहीं हो रही है या फिर भाजपा विरोध से उपजे राजनीतिक घटाटोप में उन पर साफ निगाह पड़ ही नहीं रही है.
इन दिनों तीन क्षेत्रीय दल ऐसे हैं, जिनकी महत्वाकांक्षा छुपाए नहीं छुप रही है. अपने क्षेत्र या राज्य की सीमाओं के बाहर सफल राजनीतिक कुलांचे भरने के लिए वे लगातार कोशिश कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल में तीसरी बार जीत हासिल करने के बाद ममता बनर्जी जिस तरह राजनीतिक दांव चल रही हैं, उसके संदेश स्पष्ट हैं.
राष्ट्रीय इतिहास के कठोर पत्थर पर अपना नाम खुदवाने की ममता बनर्जी की कोशिश नई भले ही हो, लेकिन शरद पवार अरसे से ऐसी कोशिश में जुटे हुए हैं. प्रधानमंत्री पद की अपनी आकांक्षा को वे शाब्दिक जाल और राजनीतिक पैंतरेबाजी के माध्यम से हर मुमकिन मौके पर जाहिर करते रहे हैं.
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जनता दल(यू) नेता नीतीश कुमार तो मोदी विरोधी विपक्षी खेमे के प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार के तौर पर उभर भी चुके थे. लेकिन बाद में बिहार की सरकार को सहयोगी लालू प्रसाद यादव ने जब अपनी लालटेन की रोशनी में राह दिखाना तेज किया तो नीतीश ने राष्ट्रीय इतिहास रचने के अपने सपने को कुछ वर्षो के लिए मुल्तवी कर दिया.
बेशक वे भाजपा के साथ हैं, लेकिन उनकी भी महत्वाकांक्षा छुपी हुई नहीं है. तीनों नेताओं ने यह समझ लिया है कि राष्ट्रीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अपना नाम उनके लिए दर्ज कराना तब ज्यादा आसान होगा, जब उनके दल क्षेत्रीयता की सीमाओं को पार करके अपना राज्यस्तरीय दर्जा पीछे छोड़ देंगे.
कहने का मतलब यह है कि उनके पास अगर पचास लोकसभा सांसद होंगे तो देश के नेतृत्व पर उनके लिए दावेदारी आसान होगी, बशर्ते कि भाजपा को अगले आम चुनावों में बहुमत न मिले.
कोलकाता की रायटर्स बिल्डिंग पर तीसरी बार कब्जा करने के बाद ममता बनर्जी ने बंगाल के बाहर पांव पसारने की रणनीति पर काम तेज कर दिया है. पश्चिम बंगाल के बाहर गोवा में उन्हें अपने लिए मुफीद मौका नजर आ रहा है.
शायद यही वजह है कि उन्होंने राज्य में कांग्रेस के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री रहे फलेरियो को तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर लिया. इसके पहले वे राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड की सदस्य रही असम की लोकसभा सांसद सुष्मिता देव को न सिर्फ तृणमूल में शामिल कर चुकी हैं, बल्कि उन्हें प. बंगाल से राज्यसभा में भी भेज दिया है. ममता बनर्जी भाजपा के विरोध में कांग्रेस के साथ भी हैं, लेकिन अपने विस्तार की योजना में वे उसी कांग्रेस की परवाह भी नहीं कर रही हैं.
क्षेत्रीयता की सीमाओं से मुक्त होने की कोशिशों में शरद पवार भी शिद्दत से जुटे हुए हैं. लेकिन उनकी सीमा यह है कि वे अपने ही राज्य महाराष्ट्र में वैसा सर्वमान्य जन समर्थक आधार हासिल करने में सफल नहीं हुए हैं, जैसा ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में हासिल है.
शरद पवार अपनी घड़ी की टिक-टिक सुनाने की कोशिश महाराष्ट्र की सीमा से बाहर भी करते रहते हैं. सोनिया गांधी के विदेशी मूल को आधार बनाकर जब उन्होंने अलग पार्टी बनाई थी, तब उनके साथ मेघालय के दिग्गज पीए संगमा भी थे. उनके साथ बिहार के तारिक अनवर भी थे.
तब राकांपा की किंचित हल्की ही सही, धमक महाराष्ट्र के बाहर बिहार और मेघालय में भी सुनाई देती थी. भले ही उसके पीछे स्थानीय गठबंधनों का भी सहयोग होता था. इसके अलावा गोवा में भी उनके एक-दो विधायक चुने जाते रहे. लेकिन बाद में संगमा ने अपनी अलग राह चुन ली और तारिक अनवर ने पुरानी कांग्रेस में ही अपना भविष्य तलाश लिया.
क्षेत्रीय से राष्ट्रीय होने की कोशिश में जनता दल (यू) भी लगा है. जिस जनता पार्टी और जनता दल का वह अंश है, अतीत में उनका कद बहुत बड़ा होता था. 1977 के चुनाव में तो जनता पार्टी ने 271 सीटें जीती थीं, जबकि 1989 में उसे 140 सीटें मिली थीं.
लेकिन उसके बाद से जनता दल लगातार छीजता चला गया. इसके इतने टुकड़े हुए कि उसके बारे में कहा जाने लगा कि इस दल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा. राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल, समाजवादी पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी, जनता दल-सेक्युलर, इंडियन नेशनल लोकदल आदि जनता दल से ही अलग होकर बने दल हैं.
जनता दल से अलग होकर बने दलों ने अपनी क्षेत्नीय सीमाओं से बाहर निकलने की कोशिश नहीं की है. इंडियन नेशनल लोकदल इसका अपवाद है, जिसके नेता ओमप्रकाश चौटाला ने इस सदी के शुरू के दिनों में ऐसी कोशिश की थी.
राष्ट्रीय बनने की कोशिश में कौन कामयाब होगा, यह कहना तो फिलहाल मुश्किल है लेकिन एक बात तय है कि यह राह तीनों ही दलों के लिए आसान नहीं है.