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राजेश बादल का ब्लॉग: गणतंत्र दिवस- सपने साकार करना अभी बाकी

By राजेश बादल | Updated: January 26, 2021 14:03 IST

भारत 72वां गणतंत्र दिवस मना रहा है. भारत ने एक गणराज्य के तौर पर लंबा सफर तय किया. इसके बावजूद देश के तौर पर कई सपने पूरे होने अभी बाकी हैं.

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ठळक मुद्देभारत के गणतंत्र को और समृद्ध बनाने की जरूरत, शासन प्रणाली में कई सुधार की जरूरत भ्रष्टाचार, राष्ट्र को लूटने की प्रवृत्ति की आद भी बरकरार, इसे बदलने की जरूरत मौजूदा शासन प्रणाली ने प्रशासकों को अपने ईश्वर होने का ही बोध कराया है, इसे बदलने की जरूरत

हजार साल की गुलामी का मानसिक त्रास क्या सात दशक का गणतंत्र दूर कर सकता है? शायद नहीं. सदियों तक दास बने रहने के बाद शासन संचालन के सूत्र किसी राष्ट्र के हाथ में आ जाएं तो वह हक्का-बक्का ही रह जाएगा. नहीं सूझेगा कि आखिर वह क्या करे. 

भारत के साथ यही हुआ है. अनगिनत देशभक्तों की कुर्बानियों के बाद जो राज हमें मिला था, वह एक लुटा-पिटा, नोचा-खसोटा, फटेहाल मुल्क था. उस देश की देह से वैशाली जैसे अनेक जनपदों की लोकतांत्रिक ग्रंथि गायब हो गई थी. रगों में बहता खून पल-पल दासता का बोध करा रहा था. 

पीढ़ियों तक हमारे गुणसूत्रों (क्रोमोसोम) में यही भाव दाखिल होता रहा. इससे क्या हुआ? जैसे शरीर का कोई अंग लंबे समय तक काम में नहीं लिया जाए तो धीरे-धीरे मानव शरीर के लिए वह अनुपयोगी हो जाता है और उसके बगैर जीने की आदत डाल लेता है, अपेंडिक्स की तरह, यही भारत की देह के साथ हुआ. अब हम उस अंग से पूरा शरीर चलाना चाहते हैं. यह कैसे संभव है?

भारत में स्वराज लेकिन हुकूमत का अंदाज परदेसी

हम ऐसा क्यों करना चाहते हैं. हजार बरस तक जम्बू द्वीप के इस इलाके में जो कुछ नागरिकों ने देखा या भोगा था, शासक बनने पर वही व्यवहार निर्वाचित और संवैधानिक प्रणाली के तहत हम भी कर रहे हैं.

हमारे शासक परदेसी थे. उन्होंने हिंदुस्तान में अपनी शासन पद्धति चलाई थी. राज करने की उनकी शैली स्वतंत्रता के बाद से आज तक हमें लुभा रही है. भारत में स्वराज है, लेकिन हुकूमत का अंदाज वही परदेसी है. सियासत और नौकरशाही के भीतर अपने ही राष्ट्र को लूटने की प्रवृत्ति आज भी बरकरार है. 

भ्रष्टाचार इसी की देन है. सरकारी खजाने से निकलते धन को कुछ इस तरह हड़पा जाने लगा है मानो भारत हमारा नहीं, बल्कि किसी अन्य देश के लोगों का है. पुलिस, राजस्व, वन, आबकारी और करों की वसूली करने वाले विभागों के कर्मचारियों-अफसरों तथा आम नागरिकों के बीच साफ सीमा रेखा है. 

आज इन क्षेत्रों की सेवाओं के प्रति वैसा ही आकर्षण बना हुआ है, जैसा परतंत्रता के दिनों में हुआ करता था.  पिछले सप्ताह एक प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने तंत्र को चेतावनी देते हुए कहा, ‘अभी अपन अलग मूड में हैं. जिस दिन मेरा तीसरा नेत्र खुल जाएगा, उस दिन आप लोगों की खैर नहीं.’

शासन प्रणाली खुद को ईश्वर होने का कराती रही है बोध

यह मानसिकता किसी भी सूरत में लोकतांत्रिक तो नहीं है. अगर चेतावनी कुछ इस तरह दी जाती कि लोगों की सेवा में कोताही बरतने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी तो उसका अर्थ ही कुछ और होता. लेकिन मौजूदा शासन प्रणाली ने उन्हें अपने ईश्वर होने का बोध कराया है और वे कहते हैं कि अभी अपन अलग मूड में हैं तो इसका मतलब यह है कि समूची मशीनरी मुखिया के मूड पर निर्भर है. 

यही बर्ताव तो राजा किया करते थे. यानी सोच में अधिनायक वाला तत्व वही है, जो किसी गोरे अफसर पर सवार होता था. तब उस मूड में वह अफसर सरे राह किसी को भी कोड़े लगाने या जेल में डालने का हुक्म दिया करता था. महात्मा गांधी स्वराज में यही खतरा देखते थे.

अजीब सी बात है कि इन दिनों अनेक लोग महात्मा गांधी के घोर विरोधी और आलोचक नजर आते हैं. गांधी को बिना पढ़े ही वे उनकी समीक्षा करने पर उतर आए हैं. गांधीजी ने आजादी से करीब पंद्रह साल पहले जोर दिया था कि राष्ट्र संचालन में सरकार या सत्ता का कम से कम दखल होना चाहिए. 

ग्राम स्वराज का पाठ याद रखना जरूरी

ग्राम स्वराज का यह पहला पाठ था. यदि उस पर अमल किया गया होता तो हमारे गणतंत्र की तस्वीर बेहद खूबसूरत होती. गांधी ने चार बरस तक इस विराट देश के हजारों गांवों की यात्रा की थी. उसके बाद ही गांवों की बेहतरी के मंत्र दिए थे. 

वर्तमान पीढ़ी दस गांवों की समस्या समझे बिना ही गांधी को खारिज कर देना चाहती है तो इसमें भारतीय लोकतंत्र का क्या दोष है. कोई भी तंत्र समाज अपने लिए रचता या गढ़ता है. बाद में यदि इंसान ही उस तंत्र के खिलाफ हो जाए तो कोई क्या कर सकता है.

लब्बोलुआब यह कि गणतंत्र दिवस का संकल्प कहता है कि हिंदुस्तान ने कभी भी अपने लोगों से वादा नहीं किया था कि आजाद होते ही आपके हाथ में कल्पवृक्ष आ जाएगा. यह हम थे, जो आजादी और स्वराज से यह चाहते थे. जब यह लक्ष्य हासिल हो गया तो अपनी जिम्मेदारी भूल गए. 

खुद ईमानदार हुए बिना हम बेईमान और भ्रष्ट तंत्र को गंगाजल से पवित्र नहीं कर सकते. आजादी के खेत में उगी सपनों की फसल इसीलिए अभी लहलहाना बाकी है.

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