राजेश बादल का ब्लॉग: टूट रही हैं पीढ़ियों को जोड़ने वाली सियासी कड़ियां

By राजेश बादल | Published: August 27, 2019 01:01 PM2019-08-27T13:01:16+5:302019-08-27T13:01:16+5:30

पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के कद्दावर नेता अरुण जेटली का शनिवार को दिल्ली के एम्स में निधन हो गया था। वह यहां नौ अगस्त से भर्ती थे।

Rajesh Badal's blog over Arun jaitly deaths: Political links connecting generations are falling apart | राजेश बादल का ब्लॉग: टूट रही हैं पीढ़ियों को जोड़ने वाली सियासी कड़ियां

भाजपा ने हाल ही में दो शिखर नेताओं को खोया है. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज

कड़ियां टूट रही हैं. पुरानी पीढ़ी जा रही है. नई आ रही है. जाने वाले की अपनी तकलीफें हैं. आने वाले के अपने सपने हैं. जाने वाला सोच रहा है कि नई नस्ल उसके दशकों के अनुभव से संचित खजाने को लेना नहीं चाहती और आने वाला सोच रहा है कि उसके सपनों के संसार में पुराने की कोई जगह नहीं रही है. 

अभी तक भारतीय परिवार और समाज में ही लोगों की वेदना का यह कारण बना हुआ था. अब सियासत में भी दो पीढ़ियों के बीच यह फासला विकराल होता जा रहा है. सामाजिक बिखराव के दुष्परिणाम हम घर-घर में देख रहे हैं और सियासत में इस टूटन का अंजाम पूरा मुल्क भुगत रहा है. 

पक्ष हो या प्रतिपक्ष, दोनों तरफ प्रत्येक दल में यह खाई और चौड़ी होती जा रही है. इसका पार्टियों और देश की लोकतांत्रिक सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है. विडंबना है कि कोई भी बीमारी से बचने के लिए पहल करने को तैयार नहीं दिखाई देता.

भाजपा ने हाल ही में दो शिखर नेताओं को खोया है. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज - दोनों ही दल के जन्म से जुड़े हुए थे और बाद की नस्लों और शिखर नेताओं के बीच समन्वय का काम करते रहे. वे दल के परंपरागत संस्कार और विचार अगली पीढ़ी को देते रहे और नए लोगों की भावनाएं शिखर नेताओं तक पहुंचाते रहे. 

कुल मिलाकर पार्टी में वे सेतु का काम करते रहे. अरु ण जेटली के रहते शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया, रमन सिंह, उमा भारती और देवेंद्र फडणवीस जैसे द्वितीय पंक्ति के नेताओं को कभी शिखर नेतृत्व के साथ संवाद में परेशानी नहीं होती थी. एक समय गुजरात के मुख्यमंत्नी नरेंद्र मोदी को भी इसका लाभ मिला था. जब गुजरात अशांत था तो प्रधानमंत्नी अटल बिहारी वाजपेयी नेतृत्व परिवर्तन का मन बना चुके थे. 

यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी भी उनके निर्णय को रोकने में कमजोर पड़ रहे थे तो अरुण जेटली ने ही कमान संभाली थी. अपनी तर्कशक्ति के दम पर उन्होंने मुख्यमंत्नी को बचा लिया था. इसी तरह एक दौर ऐसा भी आया था, जब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्नी बनने के बाद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों पर तलवार लटकने लगी थी. 

जेटली इन सबके लिए संकटमोचक की तरह सामने आए. पार्टी के भीतर द्वितीय पंक्ति के स्वर को मुखरित करने का काम भी जेटली ने बखूबी किया था. पिछले छह साल में केंद्रीय नेतृत्व के सामने प्रादेशिक नेतृत्व की असहमतियां भी अरुण जेटली ने जिस तरीके से रखीं, उस तरह तो ये नेता भी नहीं रख सकते थे. कमोबेश सुषमा स्वराज भी इसी तरह की भूमिका निभाती रहीं.
मौजूदा दौर की भाजपा की अंदरूनी सियासत में असहमति के सुरों को अधिक स्थान नहीं है. 

पार्टी के भीतर भी और बाहर भी. जेटली और सुषमा को यह हुनर हासिल था कि वे आखिरी सक्रिय सांस तक अपनी असहमति व्यक्त करते रहे. असहमति को कब, कैसे, कहां, किस अवसर पर और किस तरह प्रकट करना है - यह बेजोड़ कला अरुण जेटली को आती थी. कभी भी उन्होंने अपनी असहमति के लिए मीडिया या सार्वजनिक मंचों का इस्तेमाल नहीं किया. आज अधिकतर राजनेता अपनी असहमति का विकृत संस्करण पेश करते हैं इसलिए वे कभी युवा तुर्क, कभी बागी तो कभी असंतुष्ट करार दिए जाते हैं. इसका उनको सियासी नुकसान भी उठाना पड़ता है. झटका खाया व्यक्ति सोचता है कि मैंने तो पार्टी के हित की बात कही थी, लेकिन मुङो ही दंड भुगतना पड़ा.

दो पीढ़ियों के बीच फासले का सबसे अधिक खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ा है. सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी ने कमान संभाली तो वे बुजुर्गो की जमात के साथ तालमेल नहीं बिठा सके. वजह यही थी कि उनके पास बीच की कड़ियां नदारद थीं. 

यह तो नियति-निर्णय है कि कोई भी अनंतकाल तक शिखर पर नहीं रहता. जो आज जवान है, वह कल बूढ़ा होगा. पर बूढ़ा रिटायर हो उससे पहले जवान पीढ़ी को सबल बनाने की जिम्मेदारी भी उसी की है. इंदिरा गांधी ने जब नेहरू की विरासत संभाली थी तो स्थानीय स्तर पर नेताओं या कार्यकर्ताओं से संवाद के लिए उन्हें किसी कड़ी की जरूरत नहीं थी क्योंकि वे अपने आप में सशक्त कड़ी थीं. नेहरूजी के रहते इसकी अनेक अवसरों पर परीक्षा हो चुकी थी. लेकिन राजीव गांधी को बीच के ऐसे सेतु की आवश्यकता थी. 

वे राजनीतिक विरासत को इंदिराजी की तरह  संभालते हुए सियासत में नहीं आए थे. उस समय कांग्रेस में माधवराव सिंधिया, मोतीलाल वोरा, अर्जुन सिंह, हरिदेव जोशी, नारायण दत्त तिवारी, यशवंत राव चव्हाण, नंदिनी सत्पथी, ममता बनर्जी, वाईएसआर, अंबिका सोनी, गुलाम नबी आजाद, प्रियरंजनदास मुंशी, जनार्दन द्विवेदी, अशोक गहलोत और जगन्नाथ मिश्र जैसे चेहरे थे जो स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ समन्वय रखते थे और कड़ी का काम करते थे. वर्तमान में यह कड़ी विलुप्त सी हो गई है. यह स्थिति अक्सर कशमकश को जन्म देती है, जो पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्न के लिए घातक है.

अन्य प्रादेशिक और क्षेत्नीय पार्टियों का भी ऐसा ही हाल है. किसी भी पार्टी में शिखर पुरुष और स्थानीय कार्यकर्ता के बीच की यह परिपक्व पीढ़ी नहीं दिखाई दे रही है. नेतृत्व परिवर्तन समय की जरूरत होती है लेकिन नेतृत्व के लिए अगली पीढ़ियों को तैयार करना भी स्वस्थ गणतंत्न की जरूरत है. जो राजनीतिक दल इस इबारत को नहीं पढ़ते, वे स्वयं शनै: शनै: इतिहास के पन्नों में दफन हो जाते हैं.

Web Title: Rajesh Badal's blog over Arun jaitly deaths: Political links connecting generations are falling apart

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