राजेश बादल का ब्लॉग: कोरोना के भयावह दौर में बढ़ती सामाजिक चुनौतियां
By राजेश बादल | Published: April 7, 2021 11:19 AM2021-04-07T11:19:26+5:302021-04-07T11:20:24+5:30
विश्व बैंक, चीन और अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप ने समूचे संसार को एक तरह से दुविधा में डाल कर रखा. न चिकित्सा की कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित हो पाई और न दुनिया भर के डॉक्टरों में कोई आम सहमति बन सकी.
दिन-प्रतिदिन आ रहे आंकड़े बेहद खौफनाक और डराने वाले हैं. साल भर बाद कोरोना ज्यादा दैत्याकार और विकराल आकार लेता जा रहा है. प्रारंभिक महीने तो किसी वैज्ञानिक शोध और व्यवस्थित उपचार के बिना बीते.
विश्व बैंक, चीन और अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप ने समूचे संसार को एक तरह से दुविधा में डाल कर रखा. न चिकित्सा की कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित हो पाई और न दुनिया भर के डॉक्टरों में कोई आम सहमति बन सकी.
शुरुआत में इसे चीन की प्रयोगशाला का घातक हथियार माना गया. इसके बाद इसे संक्रामक माना गया तो कभी इसके उलट तथ्य प्रतिपादित किए गए. कभी कहा गया कि यह तेज गर्मी में दम तोड़ देगा तो फिर बाद में बताया गया कि तीखी सर्दियों की मार कोरोना नहीं झेल पाएगा.
हालांकि चार-छह महीने के बाद एक दौर ऐसा भी आया, जब लगा कि हालात नियंत्नण में आ रहे हैं. जिंदगी की गाड़ी पटरी पर लौटने लगी है. पर यह भी एक किस्म का भ्रम ही था. लोग राहत की सांस भी नहीं ले पाए कि आक्र मण फिर तेज हो गया.
पिछले एक महीने में तो इस संक्रामक बीमारी का जिस तरह विस्तार हुआ है, उसने सारी मानव जाति को हिला दिया है. रोज मिलने वाली जानकारियों पर तो एकबारगी भरोसा करने को जी नहीं करता. मानवता के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा दूसरा उदाहरण होगा, जिसमें आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक ताने-बाने को चरमराते देखा गया हो.
कोई भी देश या समाज अपनी बदहाली, गरीबी, बेरोजगारी या व्यवस्था के टूटने पर दोबारा नए सिरे से अपनी जीवन रचना कर सकता है, लेकिन अगर सामाजिक मूल्य और सोच की शैली विकलांग हो जाए तो सदियों तक उसका असर रहता है. मौजूदा सिलसिले की यही कड़वी हकीकत है.
खासकर भारत के संदर्भ में कहना अनुचित नहीं होगा कि बड़े से बड़े झंझावातों में अविचल रहने वाला हिंदुस्तान अपने नागरिकों के बीच रिश्तों को अत्यंत क्रूर और विकट होते देख रहा है. क्या यह सच नहीं है कि कोरोना ने सामाजिक बिखराव की एक और कलंकित कथा लिख दी है.
एक बरस के दरम्यान हमने श्रमिकों और उनके मालिकों के बीच संबंधों को दरकते देखा. पति-पत्नी, बेटा-बहू, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, मामा, मौसा, फूफा जैसे रिश्तों की चटकन देखी. भारतीय समाज में एक कहावत प्रचलित है कि किसी के सुख या मंगल काम में चाहे नहीं शामिल हों, मगर मातम के मौके पर हर हाल में शामिल होना चाहिए.
कोरोना काल तो जैसे मृत्यु के बाद होने वाले संस्कारों में शामिल नहीं होने का संदेश लेकर आया. लोग अपने दिल के बेहद निकट के लोगों के अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाए. आजादी के बाद सबसे बड़ा विस्थापन-पलायन हुआ. इस पलायन ने रोजी-रोटी का संकट तो बढ़ाया ही, आपसी संबंधों में भी जहर घोल दिया.
क्या इस तथ्य से कोई इंकार कर सकता है कि कोरोना काल में रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है. जो परिवार वर्षो बाद महानगरों से भागकर अपने गांवों में पहुंचे हैं, वे अपनी जड़ों में नई जमीन को तलाश रहे हैं और उस गांव, कस्बे के पास अपने बेटे को देने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं है.
भारतीय पाठ्यपुस्तकों में ज्ञान दिया जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, पर हकीकत तो यह है कि हम अब असामाजिक प्राणी होते जा रहे हैं.
यह निराशावाद नहीं है. इस कालखंड का भी अंत होगा. साल भर में अनेक दर्दनाक कथाओं के बीच मानवता की उजली कहानियां भी सामने आई हैं. संवेदनहीनता के बीच कुछ फरिश्ते भी प्रकट होते रहे हैं. पर यह तो सरकारों को ही तय करना होगा कि ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच अपनी आबादी की हिफाजत कैसे की जाए. यह उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी है.
आज गांवों, कस्बों, जिलों और महानगरों में तरह-तरह की विरोधाभासी खबरों के चलते निर्वाचित हुकूमतों की साख पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं. आम आदमी की समझ से परे है कि नाइट कफ्यरू का औचित्य क्या है? रात दस-ग्यारह बजे के बाद तो वैसे ही यातायात सिकुड़ जाता है, फिर उस समय निकलने पर पाबंदी का क्या अर्थ है.
रविवार को लॉकडाउन रखने का भी कारण स्पष्ट नहीं है. कोरोना इतना विवेकशील वायरस तो नहीं है जो दिन और समय का फर्ककरते हुए अपना आकार बढ़ाए. यह सरकारी प्रपंच नहीं तो और क्या है कि खुद राजनेताओं और उनके दलीय कार्यक्रमों में पुछल्ले नेता कोरोना से बचाव के दिशा-निर्देशों की धज्जियां उड़ाते दिख रहे हैं.
पाबंदियों के निर्देश जितने लंबे नहीं होते, उससे अधिक सूची तो उनमें छूट देने वाले प्रशासनिक निर्देशों की होती है. जिन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें तो लगता है किसी को कोरोना की चिंता नहीं है. न भीड़ को, न उम्मीदवारों को न सियासी पार्टियों को और न सितारा शिखर पुरुषों को. लोग हैरान हैं कि यह कैसा वायरस है, जो उन प्रदेशों में ज्यादा कहर ढा रहा है, जहां चुनाव नहीं हो रहे हैं.
यह मात्न संयोग है कि गैरभाजपा शासित राज्यों में लगातार स्थिति बिगड़ती जा रही है और जहां भाजपा की सरकार है, वहां सबकुछ काबू में दिखता है. इंदौर, भोपाल जैसे शहर जो अपनी जागरूकता के लिए विख्यात हैं, वहां कोरोना से बचने के लिए आम आदमी ही लापरवाह नजर आते हैं.
इसी तरह चिकित्सा तंत्र एक कसैली मंडी में बदलता दिखाई दे रहा है. इलाज के लिए कोई कीमतों का निर्धारण नहीं है. अस्पताल मनमानी फीस ले रहे हैं. गंभीर रूप से पीड़ितों को छोड़ दें तो अस्पतालों के पास गले की एंटीबायोटिक और विटामिन की गोलियां देने के सिवा कोई उपचार विधि स्पष्ट नहीं है.
कुछ अस्पताल तो फाइव स्टार होटल से बाकायदा खाना ऑर्डर करते हैं और उसका चार गुना बिल में वसूलते हैं. क्या उन पर अंकुश लगाने का कोई फार्मूला सरकारों के पास है?