राजेश बादल का ब्लॉग: चुनाव दर चुनाव बढ़ रहीं आयोग की मुश्किलें
By राजेश बादल | Published: October 23, 2018 09:53 AM2018-10-23T09:53:49+5:302018-10-23T09:53:49+5:30
पिछले आम चुनाव में चुनाव आयोग ने पेड न्यूज तथा अन्य खराबियों को रोकने के लिए जिला स्तर से लेकर प्रदेशों की राजधानियों तक मीडिया निगरानी केंद्र बनाए थे। इन केंद्रों में सैकड़ों प्रोफेशनल्स को चौबीसों घंटे इस काम में लगाया गया था।
पांच राज्यों में चुनाव प्रचार गरमा रहा है। दोनों बड़े दलों और अन्य क्षेत्नीय दलों ने उम्मीदवारों के नामों का ऐलान शुरू कर दिया है। इसके साथ ही चुनाव आयोग की चिंताएं और चुनौतियां बढ़ गई हैं।
हर चुनाव में इनका आकार और विकराल हो जाता है। सोशल मीडिया के आधुनिकतम हथियारों के सामने आयोग के पुराने और जंग खाए अस्त्न-शस्त्न बेमानी और असहाय नजर आते हैं।
चुनाव आयोग भरोसे की पूंजी और परंपरागत कायदे-कानूनों के सहारे हर निर्वाचन में अपनी नैया पार तो लगा लेता है, मगर आने वाले दिन साफ-साफ संकेत दे रहे हैं कि अब आयोग के लिए चुनाव कराना बहुत आसान नहीं होगा। फिलवक्त उसने जो कदम उठाए हैं, वे कागजों का पेट तो भरते दिखते हैं, स्थायी समाधान दूर है।
पिछले आम चुनाव में चुनाव आयोग ने पेड न्यूज तथा अन्य खराबियों को रोकने के लिए जिला स्तर से लेकर प्रदेशों की राजधानियों तक मीडिया निगरानी केंद्र बनाए थे। इन केंद्रों में सैकड़ों प्रोफेशनल्स को चौबीसों घंटे इस काम में लगाया गया था।
ये लोग पंद्रह से बीस चैनलों में प्रसारित समाचारों और विज्ञापनों तथा समाचारपत्नों के इन्हीं श्रेणियों के कंटेंट पर निगरानी रखते थे। जहां भी उन्हें शंका होती थी, वे अपनी रिपोर्ट आयोग को भेज देते थे। दरअसल यह एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसका कोई व्यावहारिक लाभ नहीं हुआ।
इस बार भी ये केंद्र चौबीसों घंटे काम कर रहे हैं। पांच राज्यों में अनुमान के मुताबिक करीब ढाई सौ लोग इस काम में लगाए गए हैं। कोई एक करोड़ रुपए के आसपास इन पर हर महीने सिर्फ वेतन के रूप में खर्च हो रहा है। पर सच्चाई यही है कि कागजों का पेट भरने के सिवा इनकी कोई उपयोगिता अभी तक सिद्ध नहीं हुई है।
आयोग के सूत्नों का कहना है कि अगर कोई उम्मीदवार खबर के लिए किए भुगतान को अपने प्रचार खर्च में जोड़कर आयोग को प्रस्तुत कर देता है और वह प्रचार की सीमा के भीतर है तो यह कोई अपराध नहीं बनता।
यह एक ऐसा कार्य है, जो शिकायत करने पर ही सामने आएगा। आयोग के लिए किसी समाचार का शुल्क तय करने का कोई पैमाना भी नहीं है कि आखिर उसका कितना धन दिया गया है। इसके बाद उस अंदरूनी रिकॉर्ड की जांच होगी। किसी के लिए निजी स्तर पर इस तरह का निगरानी तंत्न बनाना आसान नहीं है। जाहिर है यह नपुंसक कवायद साबित हुई है।
इधर व्हाट्सएप्प समूहों के माध्यम से भी विज्ञापन या समाचार प्रायोजित करने की सूचनाएं मिलने लगी हैं। विडंबना यह है कि यह प्रायोजन ठीक-ठीक विज्ञापन नहीं होता। कभी समाचार की शक्ल में होता है तो कभी इतिहास के कूड़ेदान से निकाला गया कोई बेसिर-पैर का शिगूफा।
कभी किसी राजनीतिक दल की प्रायोजित जन्मपत्नी तो कभी किसी उम्मीदवार का चरित्न हनन करती हुई कोई कहानी। कभी सांप्रदायिक सद्भाव को तार-तार करता षड्यंत्नकारी लेखन तो कभी बिना विज्ञापन बताए किसी उम्मीदवार का हर घंटे बयान।
चुनाव आयोग इस माध्यम के लिए हुए लेन-देन का कैसे पता लगाए। व्हाट्सएप्प के अलावा फेसबुक पर टिप्पणियों, सूचनाओं, चित्नों, पोस्टरों और वीडियो में से विज्ञापन या धन के लेन-देन की गंध का पता लगाने वाला कौन-सा उपकरण चुनाव आयोग के पास है? ट्विटर के जरिए रैलियों की जानकारी देना विज्ञापन माना जाए या सूचना? फेसबुक मैसेंजर पर फर्जी संदेशों और वीडियो की भरमार अभी से होने लगी है।
आम मतदाता भ्रामक प्रचार का शिकार हो जाता है। चुनाव आयोग संवैधानिक और स्थापित-प्रमाणित राजनीतिक इतिहास के साथ छेड़छाड़ पर क्या कर सकता है?
एक गंभीर मुद्दा नोटा का भी है। भारत में नोटा प्रणाली का प्रवेश पिछले चुनाव के दौरान किया गया था। लेकिन इसके कुछ समय बाद ही आयोग ने यह तय किया कि इस नई व्यवस्था का बहुत प्रचार न किया जाए।
चुनाव आयोग का मानना था कि लोकतांत्रिक प्रणाली में यह अच्छी बात नहीं है कि एक मतदाता उम्मीदवारों के बारे में इस तरह की नकारात्मक धारणा बनाए। इसलिए उस समय सारे चुनाव अधिकारियों को नोटा का प्रचार न करने की सलाह दी गई थी।
यहां तक कि भोपाल में एक प्रत्याशी ने अपनी प्रचार सभा में नोटा का सहारा लेने की अपील की थी तो चुनाव आयोग ने उसके खिलाफ एक शिकायत दर्ज करके जांच की थी। चुनाव आयोग का ताजा रवैया इसके उलट है।
कुछ महीने पहले चुनाव आयोग ने बाकायदा नोटा का प्रचार-प्रसार करने की सलाह दी है। इस दो तरह की राय का असल कारण समझ से परे है। अलबत्ता इसका दुरुपयोग राजनीतिक दल करने लगे हैं।
आम तौर पर जमीनी पकड़ रखने वाला हर उम्मीदवार चंद रोज पहले अनुमान लगा लेता है कि उसकी हार भी हो सकती है। इसलिए जहां उसे अपनी स्थिति कमजोर लगती है, वह मतदाताओं से यह प्रार्थना करता है कि भले ही वे उसे वोट न दें, लेकिन उसके प्रतिद्वंद्वी को भी वोट न दें।
बेशक वे नोटा पर अपनी मुहर लगा दें। पिछले चुनाव में मध्य प्रदेश के तीन मंत्नी हार गए थे। उनकी हार का अंतर नोटा के मतों से कम था। जब चुनाव नतीजों का बारीक विश्लेषण हुआ तो पता लगा कि सामने वाले को नहीं जीतने देने के लिए लोगों से बाकायदा नोटा का इस्तेमाल करने की अपील की गई थी। ध्यान दें कि विधानसभा क्षेत्नों में अनेक बार जीत-हार हजार-पांच सौ वोटों से भी होती है। ऐसे में कोई भी चुनाव आयोग क्या कर सकता है।