ब्लॉग: अमेरिका और चीन के रिश्तों में कहां है भारत ?

By राजेश बादल | Published: June 20, 2023 10:45 AM2023-06-20T10:45:24+5:302023-06-20T10:46:54+5:30

भारत के लिए चीन और पाकिस्तान के मामले में अमेरिकी नीति पर भरोसा करना मुश्किल है. वह भारत के लोकतंत्र की तारीफ तो करता है, पर अधिकतर अवसरों पर भारत के दुश्मनों के पाले में खड़ा दिखाई दिया है.

Rajesh Badal blog- Where is India in relationship between America and China? | ब्लॉग: अमेरिका और चीन के रिश्तों में कहां है भारत ?

अमेरिका और चीन के रिश्तों में कहां है भारत ? (फाइल फोटो)

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की चीन यात्रा यूं तो औपचारिक तौर पर कुछ भी खुलासा करने के लिए नहीं है, लेकिन उसके अनेक समीकरण सियासी गर्भ में छिपे हुए हैं. उनके कूटनीतिक अर्थ भी हैं, जो शायद दोनों ही देश फिलहाल नहीं बताना चाहेंगे. फिर भी पांच साल बाद अमेरिका के एक वरिष्ठ राजनयिक का पहला चीन दौरा महत्वपूर्ण है. पहले वे फरवरी में चीन आने वाले थे, लेकिन गुब्बारा कांड ने उनकी यात्रा में सुई चुभो दी थी. अमेरिकी वायु क्षेत्र में एक संदिग्ध चीनी गुब्बारा दिखा. उसे अमेरिकी वायुसेना ने नष्ट कर दिया था. अमेरिका ने उसे जासूसी गुब्बारा कहा. 

चीन का कहना था कि वह एक मौसम का अध्ययन करने वाला गुब्बारा था, जो रास्ता भटक गया था. इस तरह ब्लिंकन की यात्रा पांच महीने के लिए टल गई. अब ब्लिंकन के चीन दौरे में रूस और यूक्रेन की जंग के भविष्य के बारे में चर्चा हो सकती है. चीन और अमेरिका के बीच चल रहे कारोबारी शीत युद्ध का समाधान खोजना हो सकता है. भारत के लिए एक छिपा राजनयिक संदेश भी हो सकता है और अमेरिका में जो बाइडेन की दूसरी पारी के लिए वैश्विक आधार मजबूत करना भी हो सकता है. इनमें से कोई एक वजह भी हो सकती है और सारे कारण भी हो सकते हैं क्योंकि अमेरिका और चीन दोनों ही चालाक व्यापारी हैं. वे किसी भी हाल में अपने नुकसान पर रिश्तों की फसल नहीं बोएंगे.

दरअसल रूस और यूक्रेन के बीच जब जंग शुरू हुई थी तो वह कोविड के ठीक बाद का समय था. अमेरिका समेत यूरोप के अनेक देशों की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई हुई थी. ऐसे में उन्होंने यूक्रेन को एक ऐसा खेत माना, जिसका उत्पादन उनकी वित्तीय भूख शांत कर सकता था. यूक्रेन का विराट आकार और उसकी उर्वरा शक्ति इसकी गवाही देती थी. वह एक सक्षम और आत्मनिर्भर देश था. अमेरिका और उसके दोस्तों ने यूक्रेन में अपने आर्थिक संकट का समाधान देखा. इसलिए उन्होंने जंग को हवा दी. 

जब युद्ध का सिलसिला लंबा खिंच गया तो उनकी आंखें खुलीं. उन्हें यह भी समझ आया कि करीब सत्तर साल तक सोवियत संघ के झंडे तले पलते रहे यूक्रेन की अमीरी के बहुत से बीज तो रूस से आते हैं. हथियार और अन्य साजोसामान देकर वे यूक्रेन को अंतहीन अंधेरी सुरंग में धकेल रहे हैं. उन्होंने जो पैसा और संसाधन यूक्रेन में लगाया, उसकी भरपाई तो यूक्रेन दशकों तक नहीं कर पाएगा. यह जानकर उनके होश उड़े हुए हैं. समूचे यूरोप का पेट कच्चे तेल से भरने वाला रूस अब उनसे छिटका हुआ है. वे करें तो क्या करें? 

जिस तरह अफगानिस्तान में अमेरिका ने अपने आप को झोंका था, वह बाद में घाटे का सौदा साबित हुआ. इसी तर्ज पर अमेरिका ने यूक्रेन नामक ओखली में सिर दे दिया है तो उससे निकलने और मूसल से बचने की कोशिश करना उसकी मजबूरी बन गया है. चीन इसमें उसके लिए संकटमोचक का काम कर सकता है. रूस को व्यावहारिक समाधान की मेज पर लाने का काम चीन ही कर सकता है. ब्लिंकन की यात्रा का यह छिपा मकसद हो सकता है और यह चीन के लिए भी जरूरी है.

चीन भी ब्लिंकन की यात्रा के बहाने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए विवश दिखाई देता है. मौजूदा वैश्विक समीकरणों के तहत चीन और अमेरिका धुर विरोधी हैं. पर वे एक-दूसरे की ताकत से भी वाकिफ हैं. वे आपस में गुर्रा तो सकते हैं, लेकिन काट नहीं सकते. जो बाइडेन के पहले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चीन पर कई किस्म की  पाबंदियां लगा दी थीं.  इससे चीन को आर्थिक मोर्चे पर बड़ा नुकसान उठाना पड़ा. 

हालांकि ट्रम्प के बाद जो बाइडेन ने भी एक कदम आगे बढ़कर चीन को कम्प्यूटर चिप्स निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिए थे. बदले में चीन ने कम्प्यूटर चिप के उत्पादन में लगने वाला माइक्रोन अमेरिका को देना बंद कर दिया. इससे अमेरिकी कम्प्यूटर बाजार लड़खड़ा गया. इसके अलावा चीन के केमिकल बाजार का सबसे बड़ा खरीदार अमेरिका है. आप मान सकते हैं कि विरोधी खेमों के ये चौधरी प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी कारोबार में सबसे बड़े साझीदार हैं. अब दोनों बड़े देश चाहते हैं कि होड़ के बावजूद वे एक-दूसरे को आर्थिक क्षति न पहुंचाएं.

अब आते हैं विदेश मंत्री ब्लिंकन की यात्रा के बाद भारत पर पड़ने वाले असर पर. अमेरिका अपने लोकतंत्र का उपयोग अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए करता है. भारत का हाथ इस मामले में जरा तंग है. कश्मीर नीति के बारे में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के विचार भारत के अनुकूल नहीं हैं. एशिया में उन्हें एक बड़ा बाजार चाहिए, जो भारत से अलग हो. यह मुल्क चीन के अलावा दूसरा नहीं हो सकता. 

भारत के लिए चीन और पाकिस्तान के मामले में अमेरिकी नीति पर भरोसा करना मुश्किल है. वह भारत के लोकतंत्र की तारीफ तो करता है, पर अधिकतर अवसरों पर भारत के दुश्मनों के पाले में खड़ा दिखाई दिया है. चीन तो यही चाहेगा कि ब्लिंकन की यात्रा के परिणाम हिंदुस्तान के हितों की रक्षा नहीं करें.

Web Title: Rajesh Badal blog- Where is India in relationship between America and China?

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