बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों को साथ लाने का ममता बनर्जी का प्रस्ताव अलोकतांत्रिक तो नहीं, पहले भी हुआ है ऐसा

By राजेश बादल | Published: April 3, 2021 06:07 PM2021-04-03T18:07:15+5:302021-04-03T18:10:48+5:30

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं पर सबसे ज्यादा नजर पश्चिम बंगाल की ओर है। ममता बनर्जी की विपक्षी दलों से एक साथ आने की अपील भी चर्चा में है।

Rajesh Badal blog: Mamata Banerjee proposal to unite opposition ajainst BJP is not undemocratic | बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों को साथ लाने का ममता बनर्जी का प्रस्ताव अलोकतांत्रिक तो नहीं, पहले भी हुआ है ऐसा

ममता बनर्जी की सभी विपक्षी दलों से अपील के क्या मायने हैं? (फाइल फोटो)

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रतिपक्ष के पंद्रह नेताओं को चिट्ठी लिख कर एकता का प्रस्ताव दिया है. वे चाहती हैं कि भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध विपक्षी दल एक बैनर तले एकत्रित हो जाएं. 

यह सच है कि ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस की ओर से यह अपील तनिक देर से की है. एक बार चुनाव पूर्व गठबंधन हो जाए और निर्वाचन प्रक्रिया भी प्रारंभ हो जाए तो फिर इस तरह की पहल बहुत अधिक मायने नहीं रखती. 

कहीं-न-कहीं इससे मतदाताओं के बीच यह संदेश जाता है कि बंगाल में सत्तारूढ़ दल अब अकेले अपने दम पर बीजेपी का मुकाबला करने में कमजोर पा रहा है. 

ऐन वक्त पर ऐसी पहल का एकमात्र उद्देश्य यही हो सकता है कि बीजेपी विरोधी मतों का बंटवारा नहीं हो. लेकिन मान भी लिया जाए कि ममता बनर्जी का मकसद वास्तव में यही है तो उसकी निंदा क्यों करनी चाहिए? 

विपक्षा अगर साथ मिलकर बीजेपी के सामने आए तो गलत क्या?

लोकतंत्र में वैचारिक आधार पर वोटों का निष्प्राण विभाजन रोककर एक धड़कता हुआ विपक्ष अगर सामने आता है तो इसमें अनुचित क्या है और इससे भारतीय जनता पार्टी के नियंताओं की नींद क्यों हराम होनी चाहिए. 

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में न तो यह कोई अजूबा और अनूठा कृत्य है और न ही यह पहली बार हो रहा है.

अधिक पुरानी बात नहीं है. याद कीजिए, आपातकाल के दरम्यान जनता पार्टी का जन्म आखिर कोई वर्षों के विचार मंथन के बाद तो नहीं हुआ था. जय प्रकाश नारायण का आंदोलन लंबे समय तक इस मुल्क में चलता रहा. जब वह विराट आकार ले चुका तो उसकी शक्ति का एहसास तत्कालीन प्रतिपक्ष को हुआ. 

अगर विपक्ष के नेताओं को श्रीमती इंदिरा गांधी ने जेल में नहीं डाला होता तो शायद उन्हें इसकी जरूरत तब भी नहीं होती. इसके लिए उन्हें तो श्रीमती गांधी का आभारी होना चाहिए था कि उन्होंने जनता पार्टी की प्रसव पीड़ा का अनुभव गैर कांग्रेसी दिग्गजों को कराया. 

जेल से रिहा होते ही जनता पार्टी अस्तित्व में आई और रातोंरात एकत्रित हो गए उस संयुक्त विपक्ष ने कांग्रेस को शिकस्त दी. तब किसी भी चाणक्य ने सवाल नहीं उठाया कि उस समय जनसंघ, समाजवादी पार्टियां, संगठन कांग्रेस तथा अन्य दल कांग्रेस का सामना करने में असहाय पा रहे थे. 

इसी वजह से रातोंरात नया दल अस्तित्व में आ गया. अगर कांग्रेस के विरुद्ध जनता पार्टी का बनना पावन और पवित्र घटना थी तो साढ़े चार दशक बाद बीजेपी के विरुद्ध प्रतिपक्ष का एकजुट होना भी जायज है. 

मौजूदा समय में क्या पकेगी विरोधी दलों की खिचड़ी?

सियासी जानकार समझते हैं कि अव्वल तो यह मुमकिन नहीं, मगर यदि तृणमूल कांग्रेस के जानी दुश्मन वाम दल बीजेपी को रोकने के लिए एक मंच पर आ भी जाएं तो भी यह बेमेल खिचड़ी पकने वाली नहीं है. 

मान लीजिए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के प्रवाह को रोक भी दिया तो चंद रोज बाद सत्ता की मलाई में बंटवारे पर बवाल नहीं होगा -इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता. जनता पार्टी सरकार बनने के बाद जनसंघ घटक बड़ी दबंगई से दोहरी सदस्यता के नाम पर अलग हुआ ही था. 

बाद में यही घटना जनता पार्टी के बिखराव का कारण बन गई. पांच राज्यों में इन दिनों हो रहे चुनाव 1977 की तरह ऐतिहासिक भले ही न हों, पर जम्हूरियत के लिहाज से बेहद खास अवश्य हैं. और फिर ममता की अपील पर विपक्षी पार्टियों का विलय तो होने से रहा और न ही ममता इस पर तैयार होने वाली हैं. पर दो परस्पर विरोधी छोर पर खड़े दलों को प्रजातंत्र की रक्षा के बहाने कुछ समय साथ चलने से कौन रोक सकता है.
 
तो क्या पंद्रह नेताओं को ममता की चिट्ठी बांझ साबित होगी ? इसका उत्तर भी अतीत के अध्यायों में मिलता है. 

1989 के आम चुनाव को याद करने की जरूरत

याद करिए 1989 के आम चुनाव को, जब कांग्रेस को रोकने के लिए अत्यंत दुर्बल जनता दल के विश्वनाथ प्रताप  सिंह को सरकार बनाने के लिए किसका समर्थन मिला था? 

एक तरफ घनघोर दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी सरकार को टेका दे रही थी तो दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टियां भी उसी सरकार को समर्थन दे रही थीं. यह बेमेल जुगलबंदी भी लंबी नहीं चली और गरीब देश को एक बार फिर आम चुनाव का बोझ उठाना पड़ा. 

इसी लोकतंत्र को बचाने का एक हास्यास्पद उदाहरण तो हमने हाल ही में हरियाणा के विधानसभा निर्वाचन में देख लिया. पूरा चुनाव बीजेपी ने जिस दल के खिलाफ लड़ा और दोनों दलों के नेता प्रचार अभियान में पानी पी पीकर कोसते रहे, बाद में दोनों ने मिलकर सरकार बना ली. 

हमारा लोकतंत्र भी जैसे अंधों का हाथी हो गया है. हर कोई अपने-अपने ढंग से लोकतंत्र की रक्षा करने में लग जाता है. मतदाता ठगा सा रह जाता है और पराजित होता है. कथित लोकतंत्र जीत जाता है. 

इन पांच राज्यों के चुनाव बाद में कहीं ऐसा ही नजारा पेश न करें. यदि ऐसा हुआ तो वास्तव में यह गणतंत्र की सबसे बड़ी हार होगी. एक सरकार तो संवैधानिक ढांचे में चाहिए. वह बंगाल को मिलेगी और तमिलनाडु को भी. परंतु सियासी सबक किसी को नहीं मिलेगा.

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