प्रतीकों की छवि धूमिल होने के लोकतांत्रिक खतरे
By राजेश बादल | Published: October 30, 2018 05:03 AM2018-10-30T05:03:02+5:302018-10-30T05:53:42+5:30
प्रधानमंत्नी की सभा प्रत्याशित थी, पत्नकार वार्ता अप्रत्याशित। फिर भी कहीं कोई धर्मसंकट की नौबत आ ही गई थी तो पत्नकार वार्ता को दोपहर भोज में बदला जा सकता था।
भयावह दौर है। किसी भी जिम्मेदार लोकतंत्न में इस तरह शीर्ष संस्थाओं का पटरी से उतरना शुभ संकेत नहीं है। आजादी के बाद जिस कोख ने लोकतांत्रिक ढांचे को रचा और गढ़ा, वही अगर ढांचे और सांचे के विध्वंस पर उतारू हो जाए तो इसे क्या नाम देंगे? क्या यह देश आत्मअनुशासन की पगडंडी त्याग कर अराजकता के बीहड़ों में खो जाने पर उतारू नजर आ रहा है? बाड़ के खेत को हजम कर जाने के खतरे दिनोंदिन विकराल हो रहे हैं।
देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी की साख पर बट्टा कोई छोटा-मोटा झटका नहीं है। खुद वित्त मंत्नी अरुण जेटली इस पर अपनी चिंता व्यक्त कर चुके हैं। बीते बरसों में केंद्रीय जांच ब्यूरो पर राजनीतिक आरोप तो लगातार लगते रहे हैं। कभी उसे प्रतिपक्ष के खिलाफ राजनीतिक हथियार बताया गया तो कभी सरकारी पिंजरे में बंद तोता। लेकिन वर्तमान सिलसिले ने तो संस्थान की छवि को मटियामेट करने का काम किया है।
अंतर्राष्ट्रीय जांच एजेंसी इंटरपोल की यह भारत में आधिकारिक प्रतिनिधि है। इस संस्था का गठन आजादी से पहले पुलिस की एक ऐसी खास इकाई के तौर पर किया गया था, जिसका काम अधिकारियों और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार या घूसखोरी के मामलों पर काबू पाना और जांच करना था। स्वतंत्नता के बाद इसकी भूमिका अधिक व्यापक होती गई।
मजबूत रीढ़ के लिए पहचान वाली भारतीय अफसरशाही संभवत: इतनी लाचार और असहाय कभी नहीं रही।
ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब चुनाव आयोग इस साल के अंत में होने जा रहे विधानसभा चुनावों की तारीख घोषित करने के समय को लेकर विवादों में आया। इसकी स्वायत्त छवि को धक्का लगा।
अपनी साख के बारे में निजी तौर पर बेहद संवेदनशील आला चुनाव आयुक्त इस बात पर ध्यान नहीं दे पाए कि तारीखों के ऐलान में चंद घंटों की देरी से आयोग कितनी संदेह भरी नजरों का सामना करेगा। चुनाव आयोग के अपने काबिल कानूनी सलाहकार हैं।
यह सामान्य सी बात है कि प्रधानमंत्नी जैसे महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे व्यक्ति की रैलियां या सभाएं सुरक्षा के कारण काफी पहले निर्धारित हो जाती हैं, जबकि आयोग ने पत्नकार वार्ता के माध्यम से निर्वाचन कार्यक्रम की घोषणा का फैसला उसी दिन लिया। प्रधानमंत्नी की सभा प्रत्याशित थी, पत्नकार वार्ता अप्रत्याशित। फिर भी कहीं कोई धर्मसंकट की नौबत आ ही गई थी तो पत्नकार वार्ता को दोपहर भोज में बदला जा सकता था और भोज के बाद संवाददाता सम्मेलन प्रारंभ किया जा सकता था।
इसके बाद भी कानून यह कहता है कि चुनाव आयोग की पत्नकार वार्ता समाप्त होने के दौरान आचार संहिता लागू नहीं होती। समापन के बाद ही यह अमल में आती। ठीक वैसे ही, जैसे कैबिनेट का फैसला तभी अमल में लाया जाता है, जब उसका गजट नोटिफिकेशन हो जाता है। लेकिन कहीं किसी शक्तिपुंज की किरणों से आयोग के अधिकारी चौंधिया गए और अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा बैठे। पहले भी चुनाव आयोग की कार्यशैली और निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए गए हैं। लेकिन वे पानी के बुलबुले की तरह विलुप्त हो गए। इस मामले में संदेह ने आकार लिया है।
करीब साल भर पहले एक अवसर आया था, जब सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों ने सार्वजनिक रूप से एक पत्नकार वार्ता करके उजागर किया था कि भारतीय लोकतंत्न के इस शिखर संस्थान में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। देश भर में इसका सीधा प्रसारण हुआ था और लोग सन्न रह गए थे। न्यायपालिका की छवि दरकने के सदमे से अभी भी लोग उबर नहीं पाए हैं।
संविधान लागू होने के अड़तालीस घंटे बाद अस्तित्व में आए सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भारत के संविधान के संरक्षक की है। बीते अड़सठ साल में इस सम्मानित संस्था ने अपनी गरिमा बनाए रखी है। अपवाद के तौर पर कभी कुछ मामले सामने आए भी तो वे जेहन में ज्यादा नहीं ठहरे। लोकतंत्न में कभी-कभार शिखर संस्थाओं के कामकाज पर सवाल उठना अनुचित नहीं है। पर जब वर्षो से संचित यश की पूंजी लुटती है तो लगता है कहीं-न-कहीं नींव को नुकसान पहुंचने लगा है।
इसे नकारात्मक टिप्पणी न समझा जाए, मगर सच तो यही है कि प्रजातंत्न के तीन प्रमुख स्तंभों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की कार्य संस्कृति पर आक्रमण हुए हैं। अफसोसनाक है कि जिन पर इन स्तंभों की जिम्मेदारी है, वही गिरावट का सबब बन गए हैं। कोई भी प्रजातंत्न हमेशा व्यक्तियों के सहारे नहीं चलता। व्यक्ति इस व्यवस्था को देश और समाज के लिए बनाता है।
इसके कुछ प्रतीक गढ़ता है। फिर इन प्रतीकों की छवियां मुल्क की रीढ़ बन जाती हैं और राष्ट्र - संचालन करती हैं। छवियों के सहारे जीने में कोई दुविधा नहीं है। ये छवियां देश की चुनौतियों का सामना करने में सहायता भी करती हैं। क्या इस देश में भगवान राम की छवि ऐसी ही नहीं है? गांधी और नेहरू को भी आप इसी श्रेणी में रख सकते हैं। इंसान से बड़ी उसकी छवि का आकार हो तो समाज उसके सहारे वैतरणी पार करने का इरादा भी कर सकता है।
लेकिन छवियों का टूटना प्रतीकों का टूटना है। कोई इंसान अपना मर जाना पसंद कर सकता है, किंतु अपनी छवि का मर जाना पसंद नहीं करेगा। छवि का मर जाना इंसान के अपने मर जाने से कहीं ज्यादा तकलीफदेह हो सकता है। यही लोकतंत्न का मूलमंत्न है।