राजेश बादल का ब्लॉग: आपदा प्रबंधन नाकामी की सजा क्यों भुगते जनता
By राजेश बादल | Published: April 20, 2021 12:09 PM2021-04-20T12:09:46+5:302021-04-20T12:10:38+5:30
कोरोना की दूसरी लहर ने पूरी व्यवस्था की खामियों को सामने लाकर रख दिया है. ये पहली बार नहीं है. इससे पूर्व भी कई बार आपदाओं के समय हम ऐसे ही नाकाम होते रहे हैं.
इस देश के जिम्मेदार मतदाता को आजादी के सात दशक बाद यह पूछने का हक तो अपनी सरकार से है कि आखिर बड़ी आपदाओं के वक्त भारतीय आपदा तंत्र बेबस और लाचार सा क्यों नजर आता है. इस मामले में किसी एक पार्टी को निशाना बनाने का मकसद नहीं है.
हुकूमतें संभाल चुके सारे सियासी दल और गठबंधन इस पर कठघरे में खड़े दिखाई रहे हैं. एक चुस्त और तत्काल परिणाम देने वाला ढांचा हम क्यों खड़ा नहीं कर पाए हैं? आपदा प्रबंध संस्थान खोल देने और समय-समय पर उनके मुर्दा अभ्यासों से लोगों के खून-पसीने की कमाई का पैसा तो बर्बाद हो जाता है पर उससे जनता के दिलों में यह भाव नहीं जागता कि आइंदा किसी प्राकृतिक अथवा मानव निर्मित किसी विपत्ति के समय वह सुरक्षित रहेगी.खास तौर पर कोरोना-काल में यह तथ्य और गंभीरता से स्थापित होता है.
'भारत केवल एक बार सीख सका है सबक'
स्वतंत्रता के बाद सिर्फ एक बार ऐसे हालात बने थे, जब इस विराट मुल्क ने सबक सीखा था अन्यथा बाकी अवसरों पर तो हम हांफते ही रहे हैं. चीन और पाकिस्तान से जंगों के बाद हिंदुस्तान की आर्थिक हालत खस्ता थी. लगातार सूखे ने गेहूं उत्पादन पर मार की थी. लोग दाने-दाने के लिए मोहताज थे. ऐसे में अमेरिका से ही घटिया लाल गेहूं आता था.
पाकिस्तान से युद्ध में अमेरिका का फरमान आया कि जंग बंद करो नहीं तो गेहूं नहीं मिलेगा. लालबहादुर शास्त्री ने जवाब दिया, बेशक गेहूं भेजना बंद कर दीजिए. इसके बाद हरित क्रांति की नींव पड़ी. अगले दस-पंद्रह बरस में हम आत्मनिर्भर हो गए. अब किसी देश के आगे हमें अनाज की भीख नहीं मांगनी पड़ती. उल्टे जरूरत होने पर भारत दस-बीस देशों का अनाज संकट दूर करने में सक्षम है.
इसके बाद की दास्तान लेकिन नाकामी भरी है. हम आपदा, आफत और संकट से जूझने का कोई स्थाई तंत्र विकसित नहीं कर पाए. याद आती है 1984 में विश्व की भीषणतम मानव निर्मित भोपाल गैस त्रासदी की, जब जहरीली गैस मिथाइल आइसो साइनेट से लोग तिल-तिल कर मरते रहे और समूचा तंत्र विफल रहा.
श्मशान और कब्रिस्तान में जगह नहीं बची. हिंदू हो या मुस्लिम, बिना पहचान किए केरोसिन डाल कर जलाए जाते रहे. कोई दवा नहीं थी. मुख्यमंत्री समेत सारी सरकार और आला अफसर भोपाल से भाग गए. लोग अपने दम पर मौत से जूझते रहे.
यूनियन कार्बाइड सारे नियम-कानूनों को ठेंगा दिखाती रही. आज कई पीढ़ियों बाद भी उस जहरीली गैस का असर खत्म नहीं हुआ है. दोबारा कभी ऐसा हादसा हुआ तो जहरीली गैसों से बचाव का कोई एक्शन प्लान आज तक भारत की संसद में नहीं आया.
भूकंप, सुनामी, बाढ़ में भी यही हाल
इसके बाद 1996, 2001 और 2005 में भयानक भूकंप आए. भारी बर्बादी और तबाही हुई. बड़ी संख्या में जानें गईं. आपदा प्रबंध संस्थान ने कुछ मॉक ड्रिल और कुछ प्रचार सामग्री प्रसारित प्रचारित करके इतिश्री कर ली. हिमालयन जोन अभी भी भूकंप के नजरिये से बेहद संवेदनशील है. लेकिन भारत देश का कोई गांव बचाव के तरीके और क्षति नियंत्रित करने के वैज्ञानिक उपाय नहीं जानता और न ही इस पर कोई विश्वविद्यालय व्यविस्थत ढंग से पढ़ाता है.
इसी तरह पानी में आने वाले भूकंप (सुनामी) से बचाव का जमीनी तंत्र हमारे पास नहीं है. सत्रह साल पहले जब सुनामी ने भारत के अनेक शहरों में तबाही मचाई तो हम अंतरराष्ट्रीय सुनामी क्लब के सदस्य तक नहीं थे. ताजा स्थिति सिर्फ यह बदली है कि अब अगर सुनामी आई तो कुछ घंटे पहले चेतावनी जारी कर सकते हैं.
इसके सवा हम कुछ नहीं कर सकते. हम जापान जैसे देशों से भूकंप के दौरान और उसके बाद त्वरित कार्रवाई करने का पेशेवर ढंग तक नहीं सीख सके.
इस क्रम में बाढ़ के भयावह रूप को कैसे भूल सकते हैं. बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, अरुणाचल सहित अनेक राज्यों में प्रतिवर्ष बाढ़ आती है. कुछ दिनों बाद यह सिलसिला शुरू हो जाएगा.
गंगा, ब्रह्मपुत्र और कोसी जैसी अनेक नदियां बाढ़ से अपना रौद्र रूप दिखाती हैं. हम हाथ मलते हुए विनाश को देखते रहते हैं. बाढ़ के अतिरिक्त पानी को रोककर उसके इस्तेमाल की बात तो दूर, डूबे गांवों के लिए यदि सेना मदद न करे तो अनगिनत जिंदगियां पानी में बह जाएं. नदियों के पेट में घर बन रहे हैं, उपनदियां दम तोड़ती दिखाई दे रही हैं.
संसद में कभी-कभार स्थाई समितियां अपनी रिपोर्टे सदन के पटल पर रख देती हैं. उनके बाद वे धूल खाती रहती हैं. एक्शन टेकन रिपोर्ट भी एक तरह से कागजी खानापूर्ति बन कर रह गई है.
ताजा उदाहरण कोरोना काल में देखने को मिल रहा है. हम मानने के लिए तैयार हैं कि इस बीमारी से सारे संसार में कोहराम है. इसका कोई मारक एंटीडॉट अभी तक सामने नहीं आया है. महामारी का चरित्र ही ऐसा है कि उसने कमोबेश सारे प्रदेशों में हाहाकार मचा दिया है. लेकिन हम देख रहे हैं कि अस्पतालों में बिस्तर नहीं हैं. दवाएं नहीं हैं, बचाव के टीके चोरी हो रहे हैं, नकली बन रहे हैं. जो इंजेक्शन मिल रहा है तो उस पर हजारों रुपए ज्यादा देना पड़ रहा है.
यही नहीं किराना से लेकर सब्जियों के दाम लॉकडाउन या कोरोना कर्फ्यू में आसमान छू रहे हैं. उन पर किसी का नियंत्रण नजर नहीं आता. क्या महामारी या मौतों पर भी कारोबार किया जा सकता है? यह कैसा असंवेदनशील और जालिम समाज हम रच रहे हैं.
श्मशानों और कब्रिस्तानों में प्रतीक्षा सूची अगले दिन तक है. अपवाद स्वरूप समूचे तंत्र में चंद उजली कथाओं को छोड़ दें तो लगता है देश लूट की खुली छूट देने वाली एक विशाल मंडी में तब्दील हो गया है. इस पर नियंत्रण करना भी केंद्र और राज्यों की निर्वाचित सरकारों का धर्म है.