राजेंद्र दर्डा का ब्लॉग: संवेदनाओं को सहेजने वालीं नीला सत्यनारायण
By राजेंद्र दर्डा | Published: July 17, 2020 06:21 AM2020-07-17T06:21:48+5:302020-07-17T06:21:48+5:30
नीला सत्यनारायण अध्ययनशील और अनुशासन प्रिय अधिकारी थीं. गृह विभाग में काम करने के दौरान मेरी उनसे कई बार चर्चा होती रहती थी. सामने आने वाली हर बात को सकारात्मक तरीके से देखने का नजरिया उनके पास था.
एक बार वह खुद गाड़ी लेकर मुंबई के सिद्धिविनायक के दर्शन के लिए निकलीं. गलत जगह पर पार्किग के कारण पुलिस ने उन पर जुर्माना कर दिया. रसीद दी गई. उस वक्त खुद की पहचान या खुद कौन से विभाग में सचिव हैं, इसका उल्लेख टालते हुए उन्होंने चुपचाप रसीद ले ली. दो दिन बाद मुझे वह मंत्रलय में एक बैठक के दौरान मिलीं. तब मैं गृह राज्य मंत्री था और वह गृह विभाग की प्रधान सचिव..!
बैठक के बाद उन्होंने पूरी घटना की जानकारी दी. रसीद भी दिखाई. मैंने कहा, आप गृह विभाग की सचिव हैं, आपने उन्हें बताया क्यों नहीं. मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘उसने अपना काम सही किया था. फिर भला मैं उसे कैसे रोकती? उसने रसीद दी. गलती मेरी थी. मैंने जुर्माना भर दिया. आप गृह राज्यमंत्री हैं, अपनी पुलिस अच्छा काम कर रही है, बस यही आपको बताना था.’’ ऐसा कहकर वह शांत भाव से वहां से चली गईं. उनकी जगह कोई और होता तो उसने पुलिसवाले को नौकरी से हटाने तक की धमकी दे दी होती. लेकिन वैसा कुछ भी नहीं किया. ऐसी थीं नीला सत्यनारायण..!
अध्ययनशील और अनुशासन प्रिय अधिकारी. गृह विभाग में काम करने के दौरान मेरी उनसे कई बार चर्चा होती रहती थी. सामने आने वाली हर बात को सकारात्मक तरीके से देखने का नजरिया उनके पास था. उस वक्त सरकार में कुछ विभागों में बदलाव हुआ. तत्कालीन मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने मुझे आम चुनाव से छह महीने पहले ऊर्जा राज्यमंत्री का पद दिया. नीला जी गृह विभाग में ही थीं.
उन्होंने गृह विभाग के सारे अधिकारियों को बुलाकर मुझे विदाई दी. उस दौरान उन्होंने मेरे साथ काम करने के अनुभव भी साझा किए. सभी ने मुझे पुष्पगुच्छ दिए. ऐसे कितने मंत्री होंगे जिनको अधिकारीगण इतने प्रेम के साथ विदा करते होंगे. मुझे यह सौभाग्य मिला है. वह लम्हा मेरी जिंदगी में हमेशा के लिए दर्ज हो गया. नीला जी की यही अलग खासियत थी. बड़े अधिकारी होने के कारण बड़प्पन का दिखावा करना उनके स्वभाव में ही नहीं था. सादगी और दृढ़ता के साथ अपनी बात को शांतिपूर्ण तरीके से रखने का हुनर उनकी ताकत थी.
मानवीय चेहरे वाली अफ़सर
वर्ष 2004 की बात है. राज्यमंत्री के तौर पर मैंने महिला दिवस पर कुछ महिला अधिकारियों का प्रतिनिधित्व के तौर पर सम्मान करने की योजना बनाई. प्रशासन में महत्वपूर्ण विभागों को संभालने वाली प्रधान सचिव पद पर काम करने वाली वह सभी कर्मठ महिलाएं थीं. उसमें वित्त विभाग की चित्कला जुत्शी, विधि व न्याय विभाग की प्रतिमा उमरजी, सामान्य प्रशासन विभाग की चारुशिला सोहोनी, उच्च व तकनीकी शिक्षा विभाग की चंद्रा अयंगार, अल्पबचत व लॉटरी विभाग की कविता गुप्ता और गृह विभाग संभालने वाली खुद नीला सत्यनारायण का समावेश था.
सम्मान के बाद सभी ने अपने विचार व्यक्त किए. उस वक्त उन्होंने कहा कि पुरुष अधिकारियों को पोस्टिंग मिलने में मुश्किल नहीं होती, लेकिन हमें जिलाधिकारी के तौर पर भेजने पर चार बार विचार होता है. अब मैं आपके गृह विभाग में सचिव हूं. धीरे-धीरे पुराने विचार बदल रहे हैं. उन्होंने इस सुखद बदलाव का विशेष तौर पर उल्लेख किया. आज भी जब कभी किसी युवा आईएएस महिला अधिकारी की जिलाधिकारी पद पर नियुक्ति होती है तो मुझे नीला जी की याद आ ही जाती है.
खास बात यह कि वही आगे चलकर राज्य की पहली महिला चुनाव आयुक्त भी बनीं..! अपना बेटा चैतन्य, स्पेशल चाइल्ड है यह बात उन्होंने कभी किसी से नहीं छिपाई. इसके विपरीत उसकी देखभाल करते हुए उन्होंने उसके लिए अपनी जिंदगी भी बदल डाली. जिस मजबूती के साथ वह चैतन्य के लिए काफी-कुछ करती रहती थीं, उसके कारण मुझे उनके बारे में हमेशा आदर महसूस होता था. चैतन्य से संवाद साधने के दौरान ही उनकी लेखनी जीवंत हो गई. अनुभव कथन, उपन्यास, ललित जैसी उन्होंने 13 किताबें लिखीं. जिस भी किसी विभाग में वह गईं, उसे मानवीय चेहरा देने की कोशिश की. उससे मिले अनुभवों को उन्होंने किताबों में दर्ज किया.
अटल इरादों वाली महिला
गृह विभाग में रहने के दौरान वह एक बार नागपुर जेल गईं. वहां एक कैदी उन्हें मिला. उससे उन्होंने बातचीत की. उसके बाद उस कैदी के साथ उनका पत्रचार शुरू हुआ. उससे उन्हें पता चला कि उस कैदी की एक लड़की भी है. उन्होंने उस लड़की को दत्तक ले लिया. उसे अच्छी शिक्षा-दीक्षा दी. आगे चलकर वह लड़की वकील बनी और इसी विषय पर ‘‘बाबांची शाळा’’ फिल्म भी आई. अधिकारी ठान ले तो कितना कुछ कर सकता है, यह उन्होंने दिखा दिया.
यह उनका मूल स्वभाव था. हमारे बीच हमेशा व्हाट्सएप्प संवाद होता रहता था. लॉकडाउन के दौरान उनके भीतर का लेखक बेचैन हो रहा था. 4 जुलाई को उनका मुझे संदेश आया कि मैं लॉकडाउन डायरी लिख रही हूं. उसका एक पन्ना मैं रोज आपको भेजूंगी. मैंने उन्हें नये सिरे से लेखन के लिए शुभकामनाएं भी दीं. 6 जुलाई को उन्होंने मुझे डायरी का पहला पन्ना भेजा. उन्होंने जो कुछ लिखा था उसे पढ़कर मैं बहुत विचलित हो गया. हम दोनों के बीच व्हाट्सएप्प पर वह अंतिम संवाद था..
‘‘लगभग तीन महीने हो चुके हैं इस लॉकडाउन को. पहले सब्जी-भाजी मिलती थी. किराने का सामान भी मिलता था. अब तो वह भी मिलना बंद हो गया है. किस किसको निवेदन करके सामान मंगाया. कहीं दूर जाना हो तो गाड़ी चाहिए, बसें तो बंद ही हैं. रास्ते में पुलिस का डर. वह अपमान करेंगे, गाड़ी जब्त कर लेंगे, इसका डर. घर में एक स्पेशल चाइल्ड, जिसे पता ही नहीं कि आस-पास क्या चल रहा है. उसे रोज घूमकर आने की आदत थी. वह उसकी जरूरत थी. उसे मैं समझा नहीं सकती. मुझे बहुत निराशा महसूस हो रही है. हम तो एक-दूसरे से बात कर लेते हैं, दोस्तों को फोन लगा लेते हैं. वह क्या करे? उसकी घुटन किसे समझ आएगी?’’
इन बारह-तेरह पंक्तियों में उन्होंने कितनी बातें समेट दी थीं, जिनका उत्तर कम से कम आज तो किसी के पास नहीं है. लॉकडाउन ने पूरी दुनिया का मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ दिया है. संयम खत्म हो रहा है. ऐसे में अगर उन्होंने सोचा होता कि वह राज्य की गृह सचिव रह चुकी हैं, राज्य की चुनाव आयुक्त रह चुकी हैं, उन्हें कौन रोकेगा? ऐसा सोच घर से निकलने का फैसला किया होता तो वह बाहर जा सकती थीं. लेकिन नियमों को कभी नहीं तोड़ने वाली नीला जी ने नियमों का पालन किया और अपनी भावनाओं को ऐसे व्यक्त किया था. उनके निधन से आज हमने बेहद संवेदनशील अधिकारी गंवा दिया है. भावपूर्ण श्रद्धांजलि.