रहीस सिंह का ब्लॉग: अनिश्चितता का शिकार बनी रहेगी विश्व-व्यवस्था
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: December 30, 2020 12:43 PM2020-12-30T12:43:45+5:302020-12-30T12:43:52+5:30
आने वाला वर्ष विश्व-व्यवस्था के समक्ष कहीं और अधिक व कठिन चुनौतियां लेकर आएगा. संभव है कि पावर सेंटर की शिफ्टिंग को लेकर वैश्विक शक्तियांे में टकराव और तेज हो. इस दृष्टि से एक बात देखने योग्य होगी कि इस प्रतियोगिता में आगे कौन निकलता है और भारत की उसमें भूमिका क्या होगी? अभी जो स्थिति है उसमें यूरोप के सबसे पीछे रहने की संभावना है.
वर्ष 2020 विश्व-व्यवस्था में अनिश्चितता और अस्थिरता के लिए जाना जाएगा. हम कुछ सीमाओं में यह भी कह सकते हैं कि यह वर्ष कुछ अर्थो में ‘ईयर ऑफ डिवाइड’ (विभाजक वर्ष) था. 1990 के दशक से पूंजीवादी बाजारवाद के जिस युग की भूमंडलीकरण के रूप में शुरुआत हुई थी, उसे पोस्ट ट्रथ की विचारधारा और कोविड-19 महामारी से लड़ने की असफलता ने राष्ट्रों को ग्लोबलाइजेशन के राजमार्ग से नीचे उतारकर स्थानीय गलियों में भटकने के लिए विवश कर दिया.
इस स्थिति में आने वाले वर्ष में वैश्विक संबंधों की दिशा और दशा का आकलन करना मुश्किल होगा, विशेषकर तब जब विश्व-व्यवस्था का शक्ति केंद्र माने जाने वाले अमेरिका में नेतृत्व परिवर्तन हो रहा हो और यह भी तय न हो कि नए राष्ट्रपति किस ट्रैक पर चलेंगे. पूर्वानुमान की स्थिति तब और जटिल हो जाएगी जब यह भी सुनिश्चित न हो कि कोरोना महामारी का प्रकोप कब समाप्त होगा और वह किन-किन रूपों में मनुष्य के जीवन और व्यवस्थाओं को प्रभावित करेगी? तो क्या ग्लोबल इकोनॉमी, ग्लोबल गवर्नेस और वल्र्ड ऑर्डर में भावी शक्ति केंद्र के लिए कोई नई प्रतिस्पर्धा छिड़ेगी या जो प्रतिस्पर्धा चल रही है, उसमें नए तत्वों को प्रवेश मिलेगा?
यह कहना अतार्किक न होगा कि आने वाला वर्ष विश्व-व्यवस्था के समक्ष कहीं और अधिक व कठिन चुनौतियां लेकर आएगा. संभव है कि पावर सेंटर की शिफ्टिंग को लेकर वैश्विक शक्तियांे में टकराव और तेज हो. इस दृष्टि से एक बात देखने योग्य होगी कि इस प्रतियोगिता में आगे कौन निकलता है और भारत की उसमें भूमिका क्या होगी? अभी जो स्थिति है उसमें यूरोप के सबसे पीछे रहने की संभावना है. उसके सामने आतंकवाद या कट्टरपंथी चुनौती भी एक बड़ी समस्या के रूप में होगी, जिसका हल अभी दिखाई नहीं दे रहा.
इस स्थिति में वाशिंगटन के साथ मुकाबले में बीजिंग ही आगे निकलता दिख रहा है. लेकिन बीजिंग अकेले लड़ाई नहीं जीत सकता. उसे नई दिल्ली और मॉस्को के सहयोग की जरूरत होगी. लेकिन चीन भारत के प्रति जिस तरह का रवैया अपनाए हुए है, वह इस बात का संकेत कदापि नहीं देता कि नई दिल्ली इस प्रतिस्पर्धा में बीजिंग के साथ हो पाएगी. फिलहाल भारत अपने स्वाभाविक और मेजर डिफेंस पार्टनर के साथ ही व्यक्त या अव्यक्त रूप में रहेगा.
रही बात मॉस्को की तो वह अभी सौदेबाजी की स्थिति में नजर आएगा. यही नहीं बीजिंग-मॉस्को बांडिंग मध्य-पूर्व के माइंडसेट को प्रभावित करेगी और नई दिल्ली-वाशिंगटन हिंद-प्रशांत (विशेषकर पूर्वी एशिया) को. ये स्थितियां जो बाइडेन को ‘पॉलिसी ऑफ बैलेंसिंग’ की ओर ले जाने के लिए दबाव बना सकती हैं लेकिन यह अमेरिका का मौलिक चरित्र नहीं है. जो भी हो भारत दोनों ही तरफ से लाभांश की स्थिति में रहेगा.