अगस्त क्रांति: जब बलिया ने हासिल किया था स्वराज, कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग

By कृपाशंकर चौबे | Published: August 9, 2021 02:20 PM2021-08-09T14:20:23+5:302021-08-09T14:21:43+5:30

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समिति की सात और आठ अगस्त, 1942 को बंबई में हुई बैठक में ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो’ आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ था.

Quit India Movement anniversary 9 August Kranti 1942 Chittu Pandey British rule Ballia Swaraj Kripa shankar Choubey's blog | अगस्त क्रांति: जब बलिया ने हासिल किया था स्वराज, कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग

अपनी सरकार के तहत हर गांव में समितियों का गठन किया जो नि:स्वार्थ रूप से काम करती थीं.

Highlightsआठ अगस्त की देर रात गांधीजी समेत कांग्रेस के सभी शीर्ष नेताओं को बंबई में गिरफ्तार कर लिया गया.सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो आंदोलन का नेतृत्व जनता ने अपने हाथ में ले लिया.9 अगस्त 1942 को चित्तू पांडेय के नेतृत्व में भारी संख्या में कांग्रेस कार्यकर्ता बलिया के बीच चौराहे पर जुटे.

तत्कालीन संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) का बलिया जिला नौ अगस्त 1942 को ब्रिटिश राज से मुक्त होकर स्वतंत्न हो गया था. यह देखना दिलचस्प है कि बलिया का वह आंदोलन कैसा था, उसका स्वप्न कैसा था, उसके हथियार कैसे थे और उस आंदोलन की गति कैसी थी जिसके आगे बेहद ताकतवर ब्रिटिश शक्ति टिक नहीं सकी.

उस आंदोलन की एक पृष्ठभूमि थी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समिति की सात और आठ अगस्त, 1942 को बंबई में हुई बैठक में ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो’ आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ था. कांग्रेस के इस आंदोलन और गांधीजी के ‘करो या मरो’ के आह्वान के बाद आठ अगस्त की देर रात गांधीजी समेत कांग्रेस के सभी शीर्ष नेताओं को बंबई में गिरफ्तार कर लिया गया.

देशभर में गिरफ्तारियां हुईं. सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो आंदोलन का नेतृत्व जनता ने अपने हाथ में ले लिया. बलिया में आंदोलन का नेतृत्व करते हुए चित्तू पांडेय ने वहां देश की पहली अस्थाई सरकार कायम कर ली. गांधीजी के  ‘करो या मरो ’ नारे की अपील पर 9 अगस्त 1942 को चित्तू पांडेय के नेतृत्व में भारी संख्या में कांग्रेस कार्यकर्ता बलिया के बीच चौराहे पर जुटे और जिले की प्रशासन व्यवस्था को ठप कर जनता के राज की स्थापना का आह्वान किया.

संचार और यातायात व्यवस्था ठप कर दी गई. तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट जे. निगम ने चित्तू पांडेय से स्थिति पर नियंत्नण करने की अपील की तो चित्तू पांडेय ने कहा, ‘यह तभी संभव है जब प्रशासन हम संभालें. कांग्रेस नेताओं की बिना शर्त रिहाई कीजिए और हमें सत्ता सौंपिए, तभी जनता का आंदोलन रुक सकेगा, वरना शांति नहीं कायम होगी.’

कलेक्टर ने स्थिति को भांपते हुए चित्तू पांडेय से कहा, ‘ठीक है, अब आप ही जिले को संभालें.’ चित्तू पांडेय ने कचहरी में राष्ट्रीय ध्वज फहराया और प्रजा के राज के कायम होने की घोषणा कर दी. अगले दिन 10 अगस्त को खबर जब गांवों में पहुंची तो लोग घरों से निकलने लगे. जिले के थानों, कस्बों, तहसीलों में भी स्वराज की स्थापना हो गई. पूरा जिला अंग्रेजी शासन से मुक्त हो गया.

बलिया पर अंग्रेजों के शासन के खत्म होने की खबर जब लंदन पहुंची तो वहां से संयुक्त प्रांत के गवर्नर हैलेट को निर्देश आया कि बड़ी सेना लेकर बलिया पर पुन: कब्जा किया जाए. प्रांत के गवर्नर ने विशेषाधिकार के साथ मेजर नेदरसोल को भारी तादाद में फौजियों और हथियारों के साथ बलिया भेजा.

नेदरसोल फौज के साथ 22 अगस्त 1942 की रात दो बजे बलिया स्टेशन पहुंचा और वहां पहुंचते ही क्रूर कार्रवाइयां शुरू कर दीं. 23 अगस्त को अंग्रेजों की क्रूर कार्रवाइयों की भनक पाते ही चित्तू पांडेय भूमिगत
हो गए. बलिया के बाद प. बंगाल के मेदिनीपुर के तमलुक में स्वराज कायम हुआ.

29 सितंबर 1942 को मातंगिनी हाजरा ने मेदिनीपुर के तमलुक थाने पर तिरंगा ध्वज फहराने के उद्देश्य से छह हजार लोगों के साथ जुलूस निकाला तो ब्रिटिश पुलिस ने गोली चलाई. एक गोली उनके बाएं हाथ में लगी. उन्होंने ध्वज को गिरने से पहले ही दूसरे हाथ में ले लिया. तभी दूसरी गोली उनके दाहिने हाथ में और तीसरी उनके माथे पर लगी.

मातंगिनी की मृत देह वहीं लुढ़क गई. उनके बलिदान से तमलुक में इतना जोश उमड़ा कि दस दिन के अंदर ही लोगों ने अंग्रेजों को वहां से खदेड़कर स्वाधीन सरकार का गठन किया जिसने 21 महीने तक काम किया. इसी तरह महाराष्ट्र के सतारा जिले में क्रांति सिंह नाना पाटिल के रूप में नेतृत्व उभरा.

पाटिल ने अगस्त 1942 में सतारा के एक-एक गांव में जाकर स्वराज के लिए लोगों को संगठित और शिक्षित करना शुरू किया और एक साल बाद अगस्त 1943 में अपनी सरकार कायम कर ली. उन्होंने अपनी सरकार के तहत हर गांव में समितियों का गठन किया जो नि:स्वार्थ रूप से काम करती थीं.

नाना पाटिल को पकड़वाने के लिए ब्रिटिश शासन ने पुरस्कार की घोषणा कर रखी थी किंतु वे कभी उनकी पकड़ में नहीं आए. पाटिल भूमिगत होकर लगातार अपना काम करते रहे. सतारा मई 1946 तक स्वाधीन रहा. उसे नाना पाटिल की प्रति सरकार के नाम से जाना जाता है.

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