पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः भाजपा के संविधान में संशोधन होगा या फिर अमित शाह की कुर्सी जाएगी?
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 28, 2018 08:04 AM2018-12-28T08:04:27+5:302018-12-28T08:04:27+5:30
भाजपा के अंदरखाने भी यह सवाल तेजी से पनप रहा है कि अमित शाह की अध्यक्ष के तौर पर नौकरी अब पूरी हो चली है और जनवरी में अमित शाह को स्वत: ही अध्यक्ष की कुर्सी खाली कर देनी चाहिए.
गुजरात में कांग्रेस नाक के करीब पहुंच गई. कर्नाटक में भाजपा जीत नहीं पाई. कांग्रेस को देवेगौड़ा का साथ मिल गया. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पंद्रह बरस की सत्ता भाजपा ने गंवा दी. राजस्थान में भाजपा हार गई. तेलंगाना में हिंदुत्व की छतरी तले भी भाजपा की कोई पहचान नहीं और पूवरेत्तर में संघ की शाखाओं के विस्तार के बावजूद मिजोरम में भाजपा की कोई राजनीतिक जमीन नहीं. तो फिर पन्ने पन्ने थमा कर पन्ना प्रमुख बनाना या बूथ बूथ बांट कर रणनीति की सोचना या मोटरसाइकिल थमा कर कार्यकर्ता में रफ्तार ला देना. या फिर संगठन के लिए अथाह पूंजी खर्च कर हर रैली को सफल बना देना और बेरोजगारी के दौर में नारों के शोर को ही रोजगार में बदलने का खेल कर देना. फिर भी जीत न मिले तो क्या भाजपा के चाणक्य फेल हो गए हैं या जिस रणनीति को साध कर लोकतंत्न को ही अपनी हथेलियों पर नचाने का सपना अपनों में बांटा अब उसके दिन पूरे हो गए हैं क्योंकि अर्से बाद संघ के भीतर ही नहीं भाजपा के अंदरखाने भी यह सवाल तेजी से पनप रहा है कि अमित शाह की अध्यक्ष के तौर पर नौकरी अब पूरी हो चली है और जनवरी में अमित शाह को स्वत: ही अध्यक्ष की कुर्सी खाली कर देनी चाहिए.
यानी जो सवाल 2015 में बिहार के चुनाव में हार के बाद उठा था और तब अमित शाह ने तो हार पर न बोलने की कसम खाकर खामोशी बरत ली थी. पर तब राजनाथ सिंह ने मोदी-शाह की उड़ान को देखते हुए कहा था कि अगले छह बरस तक शाह भाजपा अध्यक्ष बने रहेंगे. लेकिन संयोग से 2014 में 22 सीटें जीतने वाली भाजपा के पर उसकी अपनी रणनीति के तहत अमित शाह ने ही कतर कर 17 सीटों पर समझौता कर लिया. तो उससे संकेत साफ उभरे कि अमित शाह के ही वक्त रणनीति ही नहीं बिसात भी कमजोर हो चली है.
रामविलास पासवान से कहीं ज्यादा बड़ा दांव खेल कर अमित शाह किसी तरह गठबंधन के साथियों को साथ खड़ा रखना चाहते हैं क्योंकि हार का ठीकरा समूह के बीच फूटेगा तो दोष किसे दिया जाए इस पर तर्क गढ़े जा सकते हैं. अपने बूते चुनाव लड़ना, अपने बूते चुनाव लड़कर जीतने का दावा करना और हार होने पर खामोशी बरत कर अगली रणनीति में जुट जाना ये सब 2014 की सबसे बड़ी मोदी जीत के साथ 2018 तक तो चलता रहा. लेकिन 2019 में बेड़ा पार कैसे लगेगा इस पर अब संघ में चिंतन मनन तो भाजपा के भीतरी कंकड़ों की आवाज सुनाई देने लगी है और साथी सहयोगी तो खुल कर भाजपा के ही एजेंडे की बोली लगाने लगे हैं.
शिवसेना को लगने लगा है कि जब भाजपा की धार ही कुंद हो चली है तो फिर भाजपा हिंदुत्व का बोझ भी नहीं उठा पाएगी और राम मंदिर तो कंधों को ही झुका देगा. तो शिवसेना खुद को अयोध्या का द्वारपाल बताने से चूक नहीं रही है और खुद को ही राम मंदिर का सबसे बड़ा हिमायती बताते वक्त ये ध्यान दे रही है कि भाजपा का बंटाधार हिंदुत्व तले ही हो जाए जिससे एक वक्त शिवसेना को वसूली पार्टी कहने वाले गुजरातियों को वह दो तरफा मार दे सके.
यानी एक तरफ मुंबई में रहने वाले गुजरातियों को बता सके कि अब मोदी-शाह की जोड़ी चलेगी नहीं तो शिवसेना की छांव तले सभी को आना होगा और दूसरा, धारा-370 से लेकर अयोध्या तक के मुद्दे को जब शिवसेना ज्यादा तेवर के साथ उठा सकने में सक्षम है तो फिर सरसंघचालक मोहन भागवत सिर्फ प्रणब मुखर्जी पर प्रेम दिखाकर अपना विस्तार क्यों कर रहे हैं. उनसे तो बेहतर है कि शिवसेना के साथ संघ भी खड़ा हो जाए.
यूं यह सवाल संघ के भीतर ही नहीं भाजपा के अंदरखाने भी कुलांचे मारने लगा है कि मोदी-शाह की जोड़ी चेहरे और आईने वाली है. यानी कभी सामाजिक-आर्थिक या राणनीतिक तौर पर भी बैलेंस करने की जरूरत आ पड़ी तो हालात संभलेंगे नहीं. लेकिन अब अगर अमित शाह की जगह गडकरी को अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी जाती है तो उससे एनडीए के पुराने साथियों में भी अच्छा मैसेज जाएगा क्योंकि जिस तरह कांग्रेस तीन राज्यों में जीत के बाद समूचे विपक्ष को समेट रही है और विपक्ष जो क्षत्नपों का समूह है वह भी हर हाल में मोदी-शाह को हराने के लिए कांग्रेस से अपने अंतर्विरोधों को भी दरकिनार कर कांग्रेस के पीछे खड़ा हो रहा है.
उसे अगर साधा जा सकता है तो शाह की जगह गडकरी को लाने का वक्त यही है क्योंकि ममता बनर्जी हों या चंद्रबाबू नायडू, डीएमके हो या टीआरएस या बीजू जनता दल सभी वाजपेयी-आडवाणी-जोशी के दौर में भाजपा के साथ इसलिए गए क्योंकि भाजपा ने इन्हें साथ लिया और इन्होंने साथ इसलिए दिया क्योंकि सभी को कांग्रेस से अपनी राजनीतिक जमीन के छिनने का खतरा था. लेकिन मोदी-शाह की राजनीतिक सोच ने तो क्षत्नपों को ही खत्म करने की ठान ली.
आखिरी सवाल यही है कि क्या नए बरस में भाजपा और संघ अपनी ही बिसात जो मोदी-शाह पर टिकी है उसे बदल कर नई बिसात बिछाने की ताकत रखते हैं या नहीं क्योंकि इसे तो हर कोई जान रहा है कि 2019 में जीत के लिए बिसात बदलने की जरूरत आ चुकी है अन्यथा मोदी की हार भाजपा को बीस बरस पीछे ले जाएगी.