पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: फिर से उसी दोराहे पर क्यों खड़ा है असम?
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 15, 2019 06:20 AM2019-12-15T06:20:00+5:302019-12-15T06:20:00+5:30
चालीस बरस बाद फिर वही सवाल है कि क्या बांग्लादेश के अवैध शरणार्थियों को नागरिकता देकर असमिया संस्कृति ही अल्पसंख्यक तो नहीं हो जाएगी. चालीस साल पहले जो चुनाव के लिए सड़क पर निकले थे.
चालीस बरस पहले जब पहली बार असम की सड़कों पर असमिया अस्तित्व को लेकर सवाल उठा तो सवाल असम की संस्कृति और भाषा का था. चालीस बरस बाद फिर से असम की सड़कों पर जब आक्रोश है तो सवाल असम के मूल नागरिकों की संस्कृति और भाषा का ही है.
चालीस बरस पहले असम यूनिवर्सिटी आंदोलन का केंद्र बनी थी तो 1985 में दिल्ली की सत्ता को असम समझौते के लिए राजी होना पड़ा और असम में यूनिवर्सिटी छात्न होस्टल से निकल कर सीधे सीएम हाउस पहुंच गए. प्रफुल्ल महंत सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्नी बन गए और दिल्ली में बैठी राजीव गांधी की सत्ता ने माना कि किसी क्षेत्न में बहुसंख्यक मूल निवासियों को अवैध शरणार्थियों को नागरिकता देकर अल्पसंख्यक बना देने की सोच सही नहीं होगी.
चालीस बरस बाद फिर वही सवाल है कि क्या बांग्लादेश के अवैध शरणार्थियों को नागरिकता देकर असमिया संस्कृति ही अल्पसंख्यक तो नहीं हो जाएगी. चालीस साल पहले जो चुनाव के लिए सड़क पर निकले थे. चालीस बरस बाद उन्हीं के बच्चे सड़क पर हैं, जो ये कहने से नहीं कतरा रहे हैं कि राजनीतिक वोट बैंक तले भारत की विविधता में एकता को खत्म किया जा रहा है. सियासत सांस्कृतिक मूल्यों को समझ नहीं रही है और सत्ता पाने के रास्ते तले मूल निवासियों को ही राज्य में कमजोर कर रही है.
वैसे असम के युवाओं के गुस्से का सच ये भी है कि राजनीतिक तौर पर जिस तरह हर संस्थान को मथ दिया गया है और सारे निर्णय अब सत्तानुकूल होते जा रहे हैं, यहां तक कि विश्वविद्यालय में असमिया की पढ़ाई भी राजनीति साधने का हथियार बन गई है और प्रोफेसरों की नियुक्ति भी राजनीतिक सत्ता से निकटता पर जा टिकी है तो फिर हर असमी को लगने लगा है कि आने वाले वक्त में इसका हाल भी त्रिपुरा सरीखा न हो जाए.
दरअसल त्रिपुरा में अवैध शरणार्थियों की तादाद जिस तरह बढ़ती चली गई और उन्हें तमाम दस्तावेजों के साथ वोटिंग पावर भी मिलते चले गए उसका हश्र यही हुआ कि त्रिपुरा के मूल निवासी 32 फीसदी रह गए. और राज्य की राजनीतिक सत्ता गैरत्रिपुरावासी के हाथों में आ गई. कमोबेश मेघालय की स्थिति भी इसी तरह बन रही है. शिलांग में तो बाकायदा दस किमी का यूरोपीय वार्ड है जिसमें अवैध शरणार्थियों की रिहाइश है. असम की बराक घाटी का भी यही हाल है.
असमी लोग नागरिकता संशोधन कानून से खौफजदा इसलिए हैं क्योंकि 1985 के असम समझौते में अवैध शरणार्थियों को नागरिकता देने की जो लकीर खींची गई थी वह पूर्वी पाकिस्तान यानी 25 मार्च 1971 तक की थी. तब बांग्लादेश बना नहीं था और ये मान लिया गया था कि विभाजन से पहले जिस तरह पाकिस्तान के इलाकों में रहने वाले नागरिक अगर भारत में आ गए तो उन्हें भारतीय मान लिया जाए और फिर नेहरू-लियाकत ने समझौता कर अल्पसंख्यकों के हितों को ध्यान में रखने पर सहमति जता दी, उसी तरह असम समझौते में पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों के असम या उत्तर पूर्व में बसने पर कोई बड़ी आपत्ति दर्ज की नहीं गई.
लेकिन बांग्लादेश बनने के बाद रोजगार की तलाश में जितनी बड़ी तादाद में बांग्लादेशियों ने असम को घर बनाया उसमें नागरिकता संशोधन कानून ने ये कहकर असमिया अस्तित्व पर संकट मंडरा दिया कि 31 दिसंबर 2014 तक असम पहुंचे अवैध शरणार्थियों को नागरिकता दे दी जाएगी और शरणार्थियों की तादाद इतनी ज्यादा है कि एक तरफ संकट मूल निवासियों के अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक हो जाने का है तो दूसरी तरफ जनजातियों के टकराव का है.
अब सवाल तीन हैं. पहला, क्या हिंदू-मुस्लिम के खेल में बांग्लादेशी शरणार्थियों को नागरिकता मिल जाएगी. दूसरा, क्या वोटरों को अपने अनुकूल नागरिकता देकर बनाया जा रहा है. तीसरा, क्या देश की विविधता में एकता की पढ़ाई दिल्ली में बैठी राजनीतिक सत्ता ने की ही नहीं है. क्योंकि इन तीनों परिस्थितियों ने अब संसद को भी खारिज करने वाली स्थितियां ला दी हैं और देश का संघीय ढांचा भी चरमरा रहा है.
ध्यान दें तो प. बंगाल में ममता पर मुस्लिम तुष्टिकरण का दिल्ली का आरोप हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देकर बंगाल में ठोस हिंदू वोट बैंक से सियासत साधना चाहता है. केरल और पंजाब की राजनीतिक सत्ता तो धर्म के आधार पर नागरिकता विधेयक को ही असंवैधानिक कह कर इसे अपने राज्य में लागू न करने का ऐलान कर चुकी है और जिस तरह देश के भीतर मुस्लिम समाज ये मान कर चल रहा है कि असम की तर्ज पर जब देश भर में नागरिकता खंगाली जाएगी तो पीढ़ियों से रह रहे मुसलमान अगर कोई दस्तावेज दिखा नहीं पाए तो पहले स्तर पर उन्हें नागरिक माना नहीं जाएगा और नागरिक संशोधन विधेयक नागरिकता की दख्र्वास्त करने की इजाजत नहीं देगा. तब वे क्या करेंगे.
सच तो ये भी है कि सरकारी फाइलों में ही 31 फीसदी मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे हैं और 80 फीसदी मुस्लिमों की महीने की कमाई एक हजार रुपए से कम है. तो जमीन या घर के वे कौन से दस्तावेज किस साल के दिखाएंगे जिससे ये साबित हो कि उनका भारत से रिश्ता राशन कार्ड, पैन या आधार या वोटर कार्ड से पहले का है. क्योंकि ये सारे दस्तावेज तो बांग्लादेशी शरणार्थियों के भी पास हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं.