प्रवीण दीक्षित का ब्लॉग: वामपंथी उग्रवाद से निपटने की चुनौतियां

By प्रवीण दीक्षित | Published: September 16, 2022 10:19 PM2022-09-16T22:19:20+5:302022-09-16T22:26:00+5:30

नक्सलवादी हिंसक आंदोलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दृढ़ प्रयासों के बाद से पतन के रास्ते पर है। 2014 से पहले लगभग पंद्रह से अधिक राज्य अलग-अलग तीव्रता के साथ इस समस्या का सामना कर रहे थे।

Praveen Dixit's Blog: Challenges of Tackling Left Wing Extremism | प्रवीण दीक्षित का ब्लॉग: वामपंथी उग्रवाद से निपटने की चुनौतियां

फाइल फोटो

Highlights1967 में शुरू होने वाला हिंसक नक्सलवादी आंदोलन धीरे-धीरे अपनी समाप्ति की ओर हैपीएम मोदी के दृढ़ प्रयासों से हिंसक नक्सल आंदोलन तेजी से अपने अंत की ओर बढ़ रहा हैइस कारण नक्सलियों द्वारा मारे गए सुरक्षाकर्मियों और नागरिकों की संख्या में भी भारी कमी आई है

वामपंथी उग्रवाद भारत की आजादी से ही अस्तित्व में है, लेकिन 1967 से यह नक्सलवाद के नाम से प्रमुखता पाने लगा था। यद्यपि इस आंदोलन का नाम समय-समय पर और स्थान-स्थान पर नेतृत्व के आधार पर बदल गया है, लेकिन इसने अपने अति-वामपंथी स्वभाव को बरकरार रखा है। 2014 से पहले पंद्रह से अधिक राज्य अलग-अलग तीव्रता के साथ इस समस्या का सामना कर रहे थे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दृढ़ प्रयासों के बाद, आंदोलन पतन के रास्ते पर है। पशुपति से तिरुपति तक प्रतिकूल रूप से प्रभावित जिलों की संख्या पहले की तुलना में एक तिहाई हो गई है। नक्सलियों द्वारा मारे गए सुरक्षाकर्मियों और नागरिकों की संख्या में भी भारी कमी आई है। वहीं सुरक्षा बलों ने कई वांछित नक्सलियों को खत्म करने या सुरक्षा बलों के सामने उनका आत्मसमर्पण सुनिश्चित करने में सफलता हासिल की है लेकिन यह जरूरी है कि ये प्रयास सभी संबंधित राज्यों द्वारा निरंतर किए जाएं।

तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2011 में कहा था कि वामपंथी चरमपंथी आंदोलन भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे गंभीर खतरा है। हालांकि आंदोलन से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई दी। यह आंदोलन अब दंडकारण्य के दूरस्थ, अविकसित और पिछड़े क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि शहरों, महानगरों, शिक्षा केंद्रों, अधिवक्ताओं, डॉक्टरों और शिक्षाविदों में भी इसके समर्थक हैं। चुनौती वैचारिक होने के साथ-साथ सामरिक प्रकृति की भी है।

2004 में, अति-वामपंथी गुटों ने एक साथ मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्‍सवादी लेनिनवादी (सीपीएमएल) का गठन किया। घोषित उद्देश्य ‘चुनावों में भाग नहीं लेना, बल्कि चुनावों सहित किसी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का विरोध करना’ था।

‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाही’ लाने के नाम पर, आंदोलन के शीर्ष पर कुछ लोगों ने अपने गुर्गों की तानाशाही लाने का इरादा किया। रणनीति सुरक्षा बलों, पुलिस थानों, खजाने पर हमला करने, हथियार और गोला-बारूद लूटने की थी। यह आतंक की स्थिति पैदा करके हासिल किया जाना था, उन लोगों की निर्मम हत्या करके, जो ग्रामीण स्तर पर आश्रय, राशन, नए रंगरूट प्रदान करने में उनका विरोध करते हैं। चाहे वे अनुसूचित जनजाति/जाति के हों या किसी और के हों, उनकी हत्या कर दी गई।

उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से ‘मुखबिर’ घोषित कर दिया गया और उनके शवों को गांव के प्रमुख स्थानों पर लटका दिया गया। ये नक्सलवादी उन ठेकेदारों से बड़ी फिरौती वसूलते रहते थे, जिन्हें दूरदराज के इलाकों में सड़क, पुल बनाने सहित सार्वजनिक कार्य दिए जाते थे। वे उन व्यापारियों को परेशान करते थे, जो तेंदूपत्ता सहित जंगल की उपज खरीदने आते थे। वे बहुत छोटे लड़के और लड़कियों को उनके माता-पिता से छीन लेते थे और उन्हें बाल सैनिकों के रूप में काम करने के लिए मजबूर करते थे।

इनका जनजातीय लोगों के वास्तविक कल्याण से बहुत कम लेना-देना था क्योंकि वे सरकारी एजेंसियों द्वारा दूरस्थ क्षेत्रों में सड़कें, पुल, बैंक, स्कूल, अस्पताल बनाने के सभी प्रयासों को नष्ट कर देते थे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये क्षेत्र बाहरी एजेंसियों के लिए दुर्गम रहे और इस प्रकार सीपीएमएल को स्थानीय निवासियों का तारणहार माना जाए।

वामपंथी उग्रवाद इस धारणा पर पनपता है कि जमींदारों की जमींदारी का सफाया होना चाहिए क्योंकि वे भूमिहीन श्रमिकों और दूरदराज के जंगलों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के लोगों के दुश्मन हैं। उद्योगपतियों और नियोक्ताओं को भी इसमें शामिल करने के लिए सिद्धांत को और विस्तृत किया गया है क्योंकि वे वर्ग दुश्मन हैं। वामपंथी उग्रवादियों के एजेंडे में हिंसक तरीकों से संसदीय लोकतांत्रिक संस्थानों को उखाड़ फेंकना और क्रांतिकारी शासन की शुरुआत करना शामिल है।

हालांकि समय-समय पर कार्यकर्ताओं के एक वर्ग ने चुनाव में भाग लेकर मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास किया है लेकिन संगठन का एक बड़ा हिस्सा अभी भी हठधर्मिता को अपनाए हुए है और संगठन छोड़ने वालों को मारने में संकोच नहीं करता है। ये तत्व भारतीय संविधान के बारे में मानते हैं कि यह वंचितों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित नहीं करता है।

हालांकि, वे चुनाव के किसी विकल्प को नहीं सुझाते हैं। इन वर्गों ने बार-बार विधानसभा या संसद (लोकसभा) के आम चुनावों का बहिष्कार करने का आह्वान किया है, लेकिन जिस जनता का वे प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, उसने इसे खारिज कर दिया और बड़े पैमाने पर मतदान किया है।

नक्सलवाद को समाप्त करने के लिए कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे। सरकारी एजेंसियों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन सहित विकासात्मक प्रयासों से समाज को बड़े पैमाने पर जागरूक करने की आवश्यकता है। असली चुनौती स्थानीय निवासियों को यह विश्वास दिलाना है कि इन वर्गों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरियों से संबंधित सभी कल्याणकारी योजनाएं वास्तव में उन तक पहुंचेंगी। स्थानीय युवाओं को कौशल प्रदान करने की आवश्यकता है जिससे वे अपने स्थान पर ही अपनी आजीविका अर्जित कर सकें या उन्हें सरकारी नौकरी प्रदान की जा सके।

Web Title: Praveen Dixit's Blog: Challenges of Tackling Left Wing Extremism

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