पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः सत्ता के कठघरे में बेबस संवैधानिक संस्थाएं!
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 21, 2018 06:29 AM2018-11-21T06:29:59+5:302018-11-21T07:40:32+5:30
आखिरी रास्ता का मतलब संसद इसलिए नहीं है क्योंकि संसद में अगर विपक्ष कमजोर है तो फिर सत्ता हमेशा जनता की दुहाई देकर संविधान को भी दरकिनार करते हुए जनता के वोटों की दुहाई देगी।
सीबीआई, सीवीसी, सीआईसी, आरबीआई और सरकार। देश के इन चार प्रीमियर संस्थान और देश की सबसे ताकतवर सत्ता की नब्ज पर आज की तारीख में कोई अंगुली रख दे, तो धड़कनें उसकी अंगुलियों को भी छलनी कर देंगी। क्योंकि ये सभी अपनी तरह के ऐसे हालात को पहली बार जन्म दे चुके हैं जहां सत्ता का दखल, क्रोनी कैपिटलिज्म, भ्रष्टाचार की इंतेहा और जनता के साथ धोखाधड़ी का खुला खेल है।
इन सारे नजारों को सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक दायरे में देखना - परखना चाह रहा है लेकिन सत्ता का कठघरा इतना व्यापक है कि संवैधानिक संस्थाएं भी बेबस नजर आ रही हैं। एक-एक कर परतों को उठाएं तो रिजर्व बैंक चाहे सरकार की रिजर्व मनी की मांग का विरोध कर रहा है लेकिन बैंकों से कर्ज लेकर जो देश को चूना लगा रहे हैं उनके नाम सामने नहीं आने चाहिए इस पर रिजर्व बैंक की सहमति है।
एक तरफ बीते चार बरस में देश के 109 किसानों ने खुदकुशी इसलिए कर ली क्योंकि पचास हजार रु पए से नौ लाख रुपए तक का बैंक से कर्ज लेकर न लौटा पाने की स्थिति में बैंकों ने उनके नाम बैंकों के नोटिस बोर्ड पर चस्पा कर दिए। सामाजिक तौर पर उनके लिए हालात ऐसे हो गए कि जीना मुश्किल हो गया और इसके सामानांतर बैंकों के बाउंसरों ने किसानों के मवेशी से लेकर घर के कपड़े, बर्तन तक उठाने शुरू कर दिए।
जिस किसान को सहन नहीं हुआ उसने खुदकुशी कर ली। लेकिन इसके समानांतर देश के करीब सात सौ से ज्यादा रईसों ने कर्ज लेकर बैंक को रु पया नहीं लौटाया और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने जब इन कर्जदारों के नामों को सरकार को सौंपा तो सरकार ने ही इसे दबा दिया। सीआईसी कुछ नहीं कर सकता सिवाय नोटिस देने के। यानी सीआईसी दंतहीन है। लेकिन सीवीसी दंतहीन नहीं है। यह बात सीबीआई के झगड़े से उभर कर आ गई। खासकर जब सरकार सीवीसी के पीछे खड़ी हो गई।
सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा ने सोमवार को जब सीवीसी की जांच को लेकर अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट को सीलबंद लिफाफे में सौंपा तो तीन बातें साफ हो गईं। पहला, सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर अस्थाना के बीच सीवीसी खड़ी है। दूसरा, सीवीसी सरकार के निर्देश के बगैर सीबीआई के डायरेक्टर की जांच कर नहीं सकती। यानी सरकार का साथ मिले तो दंतहीन सीवीसी के दांत हाथी सरीखी नजर आने लगेंगे और तीसरा, जब संवैधानिक संस्थानों से सत्ता खिलवाड़ करने लगे तो देश में आखिरी रास्ता सुप्रीम कोर्ट का ही बचता है।
आखिरी रास्ता का मतलब संसद इसलिए नहीं है क्योंकि संसद में अगर विपक्ष कमजोर है तो फिर सत्ता हमेशा जनता की दुहाई देकर संविधान को भी दरकिनार करते हुए जनता के वोटों की दुहाई देगी। यहां सरकार वाकई ‘सरकार’ की भूमिका में होगी न कि जनसेवक की भूमिका में। जो कि हो रहा है और दिखाई दे
रहा है।