प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: कितने विश्वसनीय हैं चुनाव पूर्व सव्रेक्षण? 

By प्रमोद भार्गव | Published: April 11, 2019 05:25 AM2019-04-11T05:25:06+5:302019-04-11T05:25:06+5:30

पिछले चुनाव में इसी गठबंधन को 330 से ज्यादा सीटें मिली थीं, जो 3 दशकों में मिला किसी दल को सबसे बड़ा जनादेश था. हालांकि जनमत सर्वेक्षण मतदाता को गुमराह कर निष्पक्ष चुनाव में बाधा भी बनते हैं.

Pramod Bhargava's blog: How reliable are pre-election surveys? | प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: कितने विश्वसनीय हैं चुनाव पूर्व सव्रेक्षण? 

प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: कितने विश्वसनीय हैं चुनाव पूर्व सव्रेक्षण? 

लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के ठीक पहले आए चार ओपिनियन पोल्स के औसत नतीजे बताते हैं कि सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन इस बार भी बहुमत हासिल कर सकता है. इस बार राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा की तुलना में खेती किसानी, बेरोजगारी, गरीबी और शिक्षा जैसे मुद्दे लगभग नदारद हो गए हैं. लिहाजा भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाला गठबंधन संसद की 543 सीटों में से 273 सीटें जीत सकता है, जो सरकार बनाने के जादुई आंकड़े से एक ज्यादा है.

हालांकि पिछले चुनाव में इसी गठबंधन को 330 से ज्यादा सीटें मिली थीं, जो 3 दशकों में मिला किसी दल को सबसे बड़ा जनादेश था. हालांकि जनमत सर्वेक्षण मतदाता को गुमराह कर निष्पक्ष चुनाव में बाधा भी बनते हैं. इसलिए इन सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की मांग भी की जाती रही है. वैसे भी ये सर्वेक्षण वैज्ञानिक नहीं हैं. इनमें पारदर्शिता की कमी रहती है. ये किसी नियम से भी बंधे नहीं हैं. 

बहुदलीय लोकतंत्र में एकमत की उम्मीद बेमानी है. जाहिर है, कांग्रेस ने सर्वेक्षण निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले बताए थे. बसपा ने भी असहमति जताई थी. माकपा की राय थी कि निर्वाचन अधिसूचना जारी होने के बाद सर्वेक्षणों के प्रसारण और प्रकाशन पर प्रतिबंध जरूरी है. तृणमूल कांग्रेस ने आयोग के फैसले का सम्मान करने की बात कही थी जबकि भाजपा ने इन सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाना संविधान के विरुद्ध माना था क्योंकि ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षणों का रुख भाजपा के पक्ष में रहा है. सर्वेक्षणों में दर्ज मतदाता या व्यक्ति की राय, भाषण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार क्षेत्र का ही मसला है. दलों की मतभिन्नता के कारण आयोग कोई निर्णय नहीं ले पाया, नतीजतन स्थिति यथावत बनी हुई है. 

फिलहाल हमारे देश में चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण को अस्तित्व में आए एक दशक ही हुआ है. यह सेफोलॉजी मसलन जनमत सर्वेक्षण विज्ञान के अंतर्गत आता है. भारत के गिने-चुने विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम के तहत सेफोलॉजी विषय को पढ़ाने की शुरुआत हुई है. जाहिर है, विषय और इसके विशेषज्ञ अभी परिपक्व नहीं हैं. जो सर्वेक्षण आते हैं, उन्हें एनजीओनुमा कंपनियां, प्रशिक्षु पत्रकारों से कराती हैं. 

जिनका अपना चुनावी सर्वे का कोई अनुभव या ज्ञान नहीं होता है. इन कंपनियों द्वारा तय किए गए चंद चुनावी क्षेत्रों में स्थानीय पत्रकारों और समाजसेवियों से मिलकर सर्वे की खानापूर्ति कर ली जाती है. सर्वेक्षणों पर शक की सुई इसलिए भी जा ठहरती है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में निर्वाचन-पूर्व सर्वेक्षणों की बाढ़ सी आई हुई है.

Web Title: Pramod Bhargava's blog: How reliable are pre-election surveys?