प्रमोद भार्गव का ब्लॉगः बिहार में जाति आधारित गणना की क्या होगी परिणति?
By प्रमोद भार्गव | Published: June 8, 2022 01:26 PM2022-06-08T13:26:18+5:302022-06-08T13:35:33+5:30
यह तथ्य अपनी जगह ठीक हो सकता है कि जाति, शिक्षा और आर्थिक आधार पर एकत्रित आंकड़े जनकल्याणकारी योजनाओं पर अमल करने में मदद कर सकते हैं लेकिन आरक्षण को लेकर समाज में जो दुविधाएं पनप रही हैं, वही परिणति जाति आधारित गणना में भी देखने को मिल सकती है क्योंकि आरक्षण का आधार तो जाति आधारित गिनती ही है।
केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना कराने से मना करने के बाद बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार राज्य के सभी राजनीतिक दलों की बैठक में आम सहमति से जातिगत जनगणना कराने का निर्णय ले लिया। राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में इस गिनती के लिए 500 करोड़ के बजट का प्रावधान भी कर दिया। राज्य सरकार यह गिनती सामान्य प्रशासन विभाग के माध्यम से कराएगी। इस निर्णय में नीतीश के साथ तेजस्वी यादव भी खड़े हैं। गिनती का विरोध कर रही राज्य भाजपा ने रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों की गिनती न कराने की सलाह देकर आखिरकार बेमन से सहमति जता दी।
यह तथ्य अपनी जगह ठीक हो सकता है कि जाति, शिक्षा और आर्थिक आधार पर एकत्रित आंकड़े जनकल्याणकारी योजनाओं पर अमल करने में मदद कर सकते हैं लेकिन आरक्षण को लेकर समाज में जो दुविधाएं पनप रही हैं, वही परिणति जाति आधारित गणना में भी देखने को मिल सकती है क्योंकि आरक्षण का आधार तो जाति आधारित गिनती ही है। देश के प्राय: सभी राजनीतिक दल जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर चुनाव में टिकट बांटते हैं। इस लिहाज से यह कहना गलत लगता है कि जातीय गिनती से समाज की सरंचना दूषित होगी। वर्तमान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गिनती जातीय आधार पर ही होती है, फिर भी जातीय तानाबाना अपनी जगह बदस्तूर है। नीतीश कुमार ने तो अति-पिछड़ी और अति-दलित जातियों के विभाजन के आधार पर ही जदयू का वजूद कायम किया है।
नब्बे के दशक में वी.पी. सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गई थीं, तब से जातीय गणना की मांग तीव्रता से उठती रही है। बिहार सहित अन्य प्रांतों से यह मांग भिन्न विचारधारा वाले राजनीतिक दल उठाते रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इस आवाज को बल दे चुकी है। उत्तर-प्रदेश की विधानसभा में भी इस मुद्दे को मुखरता मिली है। दरअसल मंडल के बाद मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, शरद यादव और नीतीश कुमार ने इस राजनीति को धार दी। इसी का परिणाम निकला कि उत्तर प्रदेश और बिहार में यह राजनीति कांग्रेस को बेदखल करके आज भी उत्कर्ष के चरम पर है।