उम्र से पहले उम्रदराज़ होती गरीबी, गरीब के बच्चों के पास नहीं होता खिलौनों से खेलने तक का समय!

By राहुल मिश्रा | Published: June 11, 2018 11:51 AM2018-06-11T11:51:37+5:302018-06-11T11:51:37+5:30

आज जब दफ्तर के लिए घर से निकला था तो अचानक मेरी नजर एक इसे बच्चे पर पड़ी जिसे देखकर मुझे अब से करीब 15-16 साल पहले की एक बात याद आ गई.

Poor Child do not have time to play with toys | उम्र से पहले उम्रदराज़ होती गरीबी, गरीब के बच्चों के पास नहीं होता खिलौनों से खेलने तक का समय!

Poor Child

गरीबी, जिसका नाम सुनते ही हमारे मन में तरह तरह के सवाल कोंधने लगते हैं। क्यों है भारत जैसे संसाधन संपन्न देश में गरीबी? सब प्रयासों के बाद भी भारत में गरीबों की कुल संख्या में इजाफा क्यों हो रहा है? भारत में अब भी सैकड़ों लोग सड़कों पर क्यों रहते हैं? गरीब बच्चे स्कूल जाने में असमर्थ क्यों हैं? ऐसे ही कई सवाल हैं जो आपके और हमारे मन में हमेशा रहते हैं।

हम में से कई लोग आज ये भी सोचते हैं कि आखिर गरीबी है क्या? किस बला का नाम है गरीबी?

दरअसल आज के समय में यह एक बेहद साधारण सा सवाल है क्योंकि गरीबी भूख है, गरीबी है एक उचित रहवास का अभाव, गरीबी है बीमार होने की अवस्था में स्वास्थ्य सुविधा का लाभ न मिल पाना, पढाई के लिए बच्चों का स्कूल न जा पाना, गरीबी है आजीविका चलाने के लिए साधनों का अभाव और उन अभावों में छोटे-छोटे बच्चों का उम्र से पहले ही बड़े हो जाना और सड़कों पर तेज धूप में खिलौने बेचना! साथ ही जब सामाजिक और राजनैतिक असमानता के कारण जब तक किसी व्यक्ति, परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती, तब उसे कहते हैं गरीबी! 

आप सोच रहे होंगे इस सब के बारे में तो आप सालों से पढ़ते और देखते आ रहे हैं, फिर मैं आपको इन सभी जगजाहिर बातों को आपके सामने क्यों रख रहा हूँ? दरअसल आज जब दफ्तर के लिए घर से निकला था तो अचानक मेरी नजर एक इसे बच्चे पर पड़ी जिसे देखकर मुझे अब से करीब 15-16 साल पहले की एक बात याद आ गई, जिसका ताल्लुकात सीधे-सीधे इस मुद्दे से है! 

शायद वो साल 2002 रहा होगा! उस वक़्त मेरी उम्र 15 साल की रही होगी। हमारे घर में हमारी एक दूर की रिश्तेदार कानपुर से रहने आई थीं। उन्हें में दीदी बुलाता था। बाबूजी ने हमारे घर के दूसरे माले के दो कमरे दीदी और उनके परिवार को रहने के लिए दे दिए थे। हालांकि उनके परिवार में उस वक्त एक तीन साल का बच्चा और उनके पति ही थे जो नजदीक की ही चूड़ी फैक्ट्री में बतौर शिफ्ट इंचार्ज काम किया करते थे। बाबू जी ने ही उनकी नौकरी वहां लगाई थी। 

कुछ दिनों के बाद ही दीदी और उनका परिवार हमारी माँ और बाकी सदस्यों से काफी घुल-मिल गए। दिन बीतने के साथ माँ बाबू जी जब भी बाजार जाते तो दीदी के बच्चे के लिए कुछ न कुछ खिलौने जरूर लेते आते। इस तरह धीरे-धीरे बच्चे के पास खिलौनों का काफी भंडार हो गया था। साथ ही अब वो बच्चा बड़ा भी हो रहा था। दीदी का विचार था कि उन खिलौनों को किसी कबाड़ी के हाथों बेच दिया जाए और कमरों की जगह खाली कर ली जाए क्योंकि बच्चा बड़ा हो गया है और अब वो उन खिलौनों की तरफ देखता भी नहीं। हालांकि जब मैंने उन खिलौनों को देखा तो पता चला कि कुछ को छोड़ कर ज्यादातर खिलौने नए जैसे ही थे। 

मैंने ये बात बाबू जी को बताई और बाबू जी ने दीदी को समझाया कि तुम्हारे बच्चे का बचपन खिलौनों में बीता यह एक संतोष की बात है। अब अगर तुम चाहो तो ये खिलौने बेचने की जगह कहीं ग़रीब बच्चों में बाँट आऊँ और कुछ नहीं तो एक नेक काम ही हो जाएगा। 

इस वक़्त मैं वहीं खड़ा था। दीदी ने कुछ नहीं कहा तो बाबू जी इसे उनकी सहमति समझ कर सभी खिलौने लेकर चल दिए। मुझे लगा कि बाबू जी अकेले जा रहे हैं मुझे भी उनके साथ जाना चाहिए, मैं भी उनके साथ हो लिया। मैंने उस वक़्त बाबू जी के चेहरे को देखा तो नजर आया कि उनके चेहरे पर एक उत्साह और संतोष के भाव थे। वो और मैं बड़े उत्साह के साथ हमारे घर से थोड़ी ही दूरी पर इंडस्ट्रीयल एरिया के पीछे बनी झुग्गियों की ओर चले जा रहे थे, शायद मेरी तरह बाबू जी भी यही सोच रहे थे कि कितना खुश होंगे वे बच्चे इन खिलौनों को पाकर। रोटी तो जैसे तैसे वे बच्चे खा ही लेते हैं। तन ढकने के लिए कपड़े भी माँग-ताँग कर पहन ही लेते हैं। पर खिलौने उन बच्चों के नसीब में कहाँ? मैं सोच रहा था कि उन्हें खुश होता देखकर मुझे कितनी खुशी होगी, इससे बड़ा काम तो कोई हो ही नहीं सकता!
 
हम अभी झुग्गियों के पास पहुंचे ही थे कि हमें मैले-फटे कपड़े पहने दो बच्चे सामने से आते नजर आये। बाबू जी ने कहा कि राहुल जाओ और ये खिलौने उन बच्चों को दे आओ। मैं उनके पास गया और उनसे कहा, "बच्चो ये खिलौने मैं तुम लोगों के बीच बाँटना चाहता हूँ। इनमें से तुम्हें जो पसंद हो वो खिलौने तुम ले लो। हैरान होकर बच्चों ने मेरी और बाबू जी की ओर देखकर एक दूसरे की तरफ देखा फिर अथाह खुशी भर कर खिलौनों को उलट–पुलट कर देखने लगे। उन्हें खुश होता देख कर मेरा और बाबू जी की खुशी का भी ठिकाना न रहा लेकिन अचानक हमने देखा कि दोनों बच्चे कुछ सोच में पड़ गए।
 
बाबू जी ने बच्चों से पूछा "क्या हुआ?"

बाबू जी के इतना पूछते ही उन बच्चों में से एक बच्चे ने झिझकते हुए खिलौने को वापस हमारे झोले में डालते हुए कहा, "हम नहीं ले सकते। हम इसे घर ले जाएंगे तो माँ पापा समझेंगे कि हमने ठेकेदार से ओवर टाइम के पैसे उन्हें बिना बताए ले लिये और उनका खिलौना ले आए। शक में तो हमारी पिटाई हो जाएगी और वैसे भी "बाबू जी हम खिलौने लेकर करेंगे क्या? हम यहां फैक्ट्री में काम करते हैं। वहीं पर रहते हैं। सुबह से लेकर देर रात तक काम करते हैं। खेलने का समय ही कहां मिलता है, आप ही बताइए हम किस समय खेलेंगे? अच्छा होगा कि आप ये खिलौने किसी 'बच्चे' को दे देना।

बात सिर्फ इतनी सी थी लेकिन उस बच्चे की वो बातें मेरे ज़हन में आज भी हैं। उन बच्चों ने कितनी आसानी से अपना बचपन भुला दिया और उम्र से पहले ही उम्रदराज़ हो गए, बड़े हो गए। उनका बचपन कहीं खो गया।
 

Web Title: Poor Child do not have time to play with toys

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