सेना पर सियासत : जनरल मलिक का संदेश न भूलें

By राजेश बादल | Published: April 16, 2019 09:06 AM2019-04-16T09:06:09+5:302019-04-16T09:06:09+5:30

सारा देश दुखी है. हर हिंदुस्तानी आहत है. भारतीय लोकतंत्न को मजबूत करने में सेना का योगदान अनमोल है. इस शानदार संस्था ने मुल्क को गर्व के अनेक अवसर दिए हैं

Politics on Army: Do not forget General Malik's message | सेना पर सियासत : जनरल मलिक का संदेश न भूलें

सेना पर सियासत : जनरल मलिक का संदेश न भूलें

सारा देश दुखी है. हर हिंदुस्तानी आहत है. भारतीय लोकतंत्न को मजबूत करने में सेना का योगदान अनमोल है. इस शानदार संस्था ने मुल्क को गर्व के अनेक अवसर दिए हैं. अफसोस कि इन दिनों चुनावी माहौल में सेना पर स्तरहीन सियासत हो रही है. फौज में सेवाएं दे चुके बहादुर अफसर इसके लिए राजनेताओं को आगाह कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा. सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल दीपेंदरसिंह हुड्डा अत्यंत सम्मानित, ईमानदार और काबिल अफसरों में से हैं. वे उड़ी कैंप पर हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक के नायक हैं. उन्होंने बेहद सधी और संतुलित प्रतिक्रिया में कहा है कि सर्जिकल स्ट्राइक का सरकारी फैसला यकीनन साहसिक था, पर सेना को हमेशा ऐसे अभियानों में पूरी छूट रही है. फौज के हाथ कभी बंधे नहीं थे. सेना ने ही सीमा पार जाकर पांच आतंकी शिविरों को निशाना बनाने का निर्णय लिया था. यह बयान सेना की पेशेवर काबिलियत सिद्ध करता है. 

इस बार चुनाव में सेना के पराक्रम पर वोट मांगे जा रहे हैं गोया हालिया वर्षो में उसे कोई बहादुरी का खास इंजेक्शन लगा दिया गया हो. क्या आपको 1999 में कारगिल से पाकिस्तानी सेना को वापस खदेड़ना, 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति, 1965 का पाकिस्तान युद्ध और इससे पहले 1948 का छद्म कबाइली हमला याद है? इसीलिए पूर्व थलसेना अध्यक्ष जनरल शंकरराय चौधरी और अनेक जांबाज जब कहते हैं कि सेना मुल्क की हिफाजत के लिए लड़ती है, किसी राजनीतिक दल के लिए नहीं, तो एतराज क्यों होना चाहिए? यदि फौजी कहते हैं कि उनके नाम पर वोट न मांगे जाएं तो इसे कोई अनुचित नहीं ठहराएगा. चुनाव के दरम्यान यह प्रवृत्ति नहीं रु क रही. यह निंदनीय है.  

पुरानी बात नहीं है. कारगिल में घुसपैठियों की शक्ल में पाकिस्तानी फौज घुस आई थी. काफी दिनों तक तो हमें पता ही नहीं चला. जब खबर मिली तो उन्हें खदेड़ा गया. इसके बाद सरकार ने कारगिल विजय पर सियासत की. उस समय भी आला फौजी अफसरों ने सेना को चुनावी राजनीति में न घसीटने की बात खुलकर कही थी लेकिन सेना की नहीं सुनी गई. तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक इस पूरे घटनाक्रम से बेहद खिन्न थे. उन्होंने तेरह साल पहले अपनी पुस्तक ‘कारगिल एक अभूतपूर्व विजय’ में एक अध्याय इस पर लिखा है. शीर्षक है- ‘हमें अलग रहने दें : राजनीतिक दृष्टि से हम तटस्थ हैं’. इसमें लिखी जनरल मलिक की कुछ टिप्पणियां पेश हैं, ‘‘देश को प्रभावित करने वाले गंभीर रक्षा मुद्दों पर राजनीतिक सहमति के बिना सशस्त्न सेना के राजनीतिकरण का खतरा मंडरा रहा है. चुनावी लाभ के लिए कारगिल युद्ध के दुरुपयोग से सैन्य नेतृत्व चिंतित हो उठा क्योंकि इससे सशस्त्न बल के तटस्थ चरित्न को धक्का लगता.

कालांतर में इसकी कुशल कार्यनिष्ठा प्रभावित होती..जब युद्ध थोपा गया, उस समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी. कुछ माह में ही संसद के चुनाव होने थे..इस दौरान ऐसी घटनाएं हुईं, जिसमें राजनीतिक विवाद में थलसेना को घसीटा गया. एक बैठक में सेना के दल को अल्पसूचना पर केवल एनडीए सांसदों को विवरण देने संसद भवन बुलाया गया. दल में तीनों सेनाओं के सैन्य अभियान महानिदेशक थे. जब मीडिया और विपक्ष को पता चला तो बड़ा विवाद खड़ा हो गया, जो उचित था. रक्षा मंत्नी के निजी सचिव ने इसके लिए मंत्नालय निर्देश भेजा था. इसमें एनडीए के दलों के सांसद अपने-अपने दल के झंडे लिए थे. इससे सेना का दृष्टिकोण पक्षपाती माना गया..जैसे-जैसे युद्ध के अंतिम परिणाम दिखने लगे और चुनाव नजदीक आता गया, कारगिल राजनीतिक रस्साकशी और चुनाव अभियान का मुद्दा बन गया. कोई सैनिकों की सराहना करता था तो कोई उनकी कमी का संकेत करता था.

राजनीतिक दल कारगिल विजय को सीधे तौर पर भुना रहे थे. विपक्ष उपलब्धियों को कम कर आंक रहा था..एक दल तो इस स्तर तक पहुंचा कि हरियाणा की चुनावी रैली में तीनों सेना प्रमुखों के पोस्टर लगा दिए गए.’’ जब थल सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्नी अटलबिहारी वाजपेयी को जानकारी दी तो उन्होंने माना कि एनडीए के घटक दलों और कार्यकर्ताओं ने गलत किया है. किंतु उन्होंने जनरल मलिक को भी नसीहत दी कि वे अति संवेदनशील न बनें. सेना में इस बात पर गुस्सा था कि संकीर्ण चुनावी लाभ लेने के लिए युद्ध का राजनीतिकरण किया गया और सेना को चुनावी राजनीति में धकेला गया. जनरल मलिक ने लिखा, ‘‘निराश होकर मुङो मीडिया के जरिए राजनेताओं और दलों को सख्त संदेश देना पड़ा- हमें विवादों में न धकेलें. हम राजनीतिक दृष्टि से तटस्थ हैं.’’ वे लिखते हैं कि सेना से जुड़े संवेदनशील मसलों से राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास कारगिल जंग के बाद भी हुए. इससे जुड़े नाजुक मसलों पर शायद ही कभी विचार हुआ.

इन दिनों मीडिया का एक वर्ग खुलकर राजनीतिक पक्षपात पर उतर आया है. जनरल मलिक ने इस पर भी चेतावनी दी थी. उन्होंने कारगिल समीक्षा समिति रिपोर्ट के हवाले से कहा था कि राजनीति और मीडिया के साथ होने से सेना के सामने खतरनाक संगम उत्पन्न हो सकता है. यह फौज की राजनीतिक तटस्थ प्रकृति पर उल्टा असर डाल सकता है. मीडिया ने जानबूझकर गलत रिपोर्टे दीं. रिपोर्टो की प्रकृति दुष्टतापूर्ण और निंदनीय थी. थलसेना ने इसकी शिकायत प्रेस कौंसिल से की. कौंसिल ने शिकायत को सही माना और समाचार पत्न को चेतावनी दी. जनरल मलिक का यह आकलन महत्वपूर्ण है कि सरकार प्रभावित, नियुक्त या प्रायोजित मीडिया भारत में सफल नहीं हो सकता. इस पर वर्तमान नेतृत्व को निश्चित तौर पर ध्यान देना होगा.

Web Title: Politics on Army: Do not forget General Malik's message

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