पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: पदयात्रा राजनीतिक या गैर राजनीतिक?

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 12, 2022 09:39 AM2022-11-12T09:39:16+5:302022-11-12T09:41:33+5:30

राहुल की पदयात्रा ने कैडर को खड़ा किया है। पदयात्रा ने राहुल को गांधी नेहरू परिवार की विरासत की ताकत से आगे ले जाकर जमीनी व सरोकारी नेता के तौर पर मान्यता दी है जहां कांग्रेस के अंतर्विरोध कद्दावर कांग्रेसी नेताओं को कैडर बनकर काम करने की दिशा में ले जा रहे हैं।

Political or non-political march? | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: पदयात्रा राजनीतिक या गैर राजनीतिक?

पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: पदयात्रा राजनीतिक या गैर राजनीतिक?

Highlightsविचारधारा जब वोटरों का ध्रुवीकरण कर रही है तो समझना जनता को ही होगा।ध्यान दें तो सभी सवाल कांग्रेस में बदलाव खोज रहे हैं समझा रहे हैं कि कांग्रेस को विपक्ष या राजनीतिक दल के तौर पर नई लकीर खींचनी होगी।अलग-अलग धर्म, जाति, संस्कृति को समेटे लोगों को एक छतरी तले कैसे लाया जा सकता है।

लोग जुड़ रहे हैं। नेता पीछे छूट रहे हैं। आभामंडल आम लोगों में समा रहा है। खास की चमक जनसमुद्र के सामने फीकी पड़ रही है। राहुल ओस के मोती समान चमक रहे हैं। ये बदलाव का दौर है। कांग्रेस के लिए। राजनीति के लिए। जनता के लिए। कद्दावर कांग्रेसियों के लिए। गांधी परिवार के लिए। क्या यही भारत जोड़ो यात्रा है। आजाद भारत में पहली बार गांधी-नेहरू परिवार की विरासत को संभाले कोई नेता सड़क पर है। 

जो सीधे जनता से संवाद बना रहा है। जिसने अपने इर्द-गिर्द के आवरण को हटा दिया है। कोई बिचौलिया नहीं। कोई सलाहकार नहीं। जिसने अपनी चकाचौंध और परिवार की ताकत को दरकिनार कर दिया है। राहुल गांधी के निशाने पर सत्ता भी है और विपक्ष भी। क्षत्रप भी हैं और खुद को राष्ट्रीय नेता मानने वाले मुख्यमंत्री भी। नफरत और टूटते समाज को जोड़ने की कवायद करती ये पदयात्रा कितनी राजनीतिक है या फिर समाज को संघर्ष करने के लिए तैयार करती ये पदयात्रा है जिसमें जनता खुद तय करे कि वह कैसी राजनीति चाहती है। 

और राहुल गांधी किसी संत की भूमिका में कांग्रेस का राहुलीकरण चाहते हैं। क्या इसीलिए वो मौजूदा कांग्रेस की राजनीति से दूर हैं क्योंकि उन्होंने सत्ताधारी कांग्रेसियों के भ्रष्टाचार को भी समझ लिया है और सत्ता में रहकर कांग्रेसियों के अहंकार को भी समझ लिया है। इसीलिए चुनाव दर चुनाव गोते लगाती कांग्रेस को संभालने से भी उन्होंने इंकार किया और भारत जोड़ो यात्रा की राह पकड़ना ही सही समझा। 

तो क्या पदयात्रा जनता का राजनीतिकरण कर रही है। और भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस को लीडर, कैडर और आइडियोलाॅजी तीनों दे दिए हैं। तो क्या राहुल की पदयात्रा सफल हो चुकी है। शायद नहीं। सवाल चुनावी राजनीति का है। चुनावी लोकतंत्र का है जिसमें राहुल गांधी की पदयात्रा कहां कैसे फिट बैठेगी। भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को बहुत आस है। 

लेकिन कांग्रेस इस हकीकत को भी समझ रही है कि गुजरात और हिमाचल के चुनाव परिणाम 8 दिसंबर को आएंगे और उस दिन पदयात्रा राजस्थान पहुंच चुकी होगी। परिणाम अगर कांग्रेस के खिलाफ गए तब राहुल की पदयात्रा का कितना राजनीतिक महत्व बचेगा। तो क्या भारत जोड़ो यात्रा का चुनावी राजनीति से कोई वास्ता नहीं है? दरअसल राहुल की पदयात्रा को लेकर उठते सवालों के दायरे में चुनावी राजनीति से ज्यादा पदयात्रा के दौरान राहुल के जरिये उठाए गए सवालों पर गौर करने की जरूरत है। राहुल जो संवाद कर रहे हैं। जिन मुद्दों का राजनीतिकरण कर रहे हैं। 

जिस राजनीति पर खामोशी बरत रहे हैं। असल में राज्य दर राज्य पार करती भारत जोड़ो यात्रा पांच बातों को उठा रही है। पहला, मुद्दे हैं लेकिन परिदृश्य से गायब हैं तो जनता क्या करेगी। विपक्ष क्या करेगा। दूसरा, हर मुद्दे को भाजपा चुनावी जीत-हार से जोड़ रही है। तीसरा चुनावी जीत वोटरों से ज्यादा मशीनरी और मैकेनिज्म पर आ टिकी है जिसमें पूंजी का योगदान सबसे बड़ा हो चला है। चौथा, पूंजी देश की संपत्ति व जनता की संपत्ति की लूट है। कई नीतियां ही भ्रष्टाचार को सिस्टम में तब्दील कर चुकी है। 

पांचवां, विचारधारा जब वोटरों का ध्रुवीकरण कर रही है तो समझना जनता को ही होगा। यानी जनता का राजनीतिकरण। ध्यान दें तो सभी सवाल कांग्रेस में बदलाव खोज रहे हैं समझा रहे हैं कि कांग्रेस को विपक्ष या राजनीतिक दल के तौर पर नई लकीर खींचनी होगी। असल में भारत जोड़ो यात्रा के इन पांच मंत्रों का कैनवास कांग्रेस को चुनावी राजनीति के लिए तैयार करने के बदले जनता का राजनीतिकरण करने की दिशा में है। 

अलग-अलग धर्म, जाति, संस्कृति को समेटे लोगों को एक छतरी तले कैसे लाया जा सकता है। ये कार्य एक राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है लेकिन राष्ट्रीय विचारधारा के जरिये सभी को एक धागे में पिरोया जा सकता है। इसलिये कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की सबसे बड़ी सफलता लीडर, कैडर और आइडियोलाॅजी को पाने की है, जो राहुल की पदयात्रा से पहले कांग्रेस में गायब थी। 

इसकी बारीकी को समझें तो राहुल की पदयात्रा का कैनवास गुजरात या हिमाचल का चुनाव नहीं देख रहा है। कांग्रेस हो या गांधी परिवार, इस हकीकत को समझ चुके हैं कि जब तक नेता का कद पार्टी से बड़ा नहीं होगा या पूरी पार्टी नेता के पीछे खड़ी नहीं होगी या जनता नहीं होगी तब तक राजनीतिक तौर पर सत्ता मिलना नामुमकिन है। राहुल गांधी के साथ चल रहे सवा सौ युवा कांग्रेस में दूसरी कतार के नेताओं की तर्ज पर खड़े हो रहे हैं।

राहुल की पदयात्रा ने कैडर को खड़ा किया है। पदयात्रा ने राहुल को गांधी नेहरू परिवार की विरासत की ताकत से आगे ले जाकर जमीनी व सरोकारी नेता के तौर पर मान्यता दी है जहां कांग्रेस के अंतर्विरोध कद्दावर कांग्रेसी नेताओं को कैडर बनकर काम करने की दिशा में ले जा रहे हैं। जो कांग्रेस गांधी परिवार के बगैर कुछ भी नहीं उस कांग्रेस के पास गांधी परिवार की ही पदयात्रा के अलावा कोई राजनीतिक मंत्र भी नहीं है। 

उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पंजाब में कोई कांग्रेसी नेता नहीं जिसकी मौजूदगी कांग्रेस को ताकत दे। या कांग्रेस के होने का एहसास कराए। यानी लोकसभा की 543 में से 300 सीटों पर कोई कांग्रेसी नेता है ही नहीं। तो क्या राहुल की पदयात्रा की राजनीति उसी तरह है जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष बने। या फिर राहुल की पदयात्रा समूची कांग्रेस को बदलने की ताकत रखती है। क्योंकि पदयात्रा ने राहुल गांधी को बदल दिया। जनता में देश की राजनीति बदलने के सपने को जगा दिया तो कांग्रेस बदलेगी, विपक्ष बदलेगा।

Web Title: Political or non-political march?

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