पुलिस व्यवस्था में सुधार जरूरी, पिछले 10 वर्षों में प्रत्येक वर्ष 47.2 आपराधिक मामले दर्ज
By डॉ. सरवन सिंह बघेल | Published: January 17, 2022 08:26 PM2022-01-17T20:26:17+5:302022-01-17T20:36:04+5:30
पुलिस कर्मचारियों और अधिकारियों को यह भान होना चाहिए कि उनका काम मानवाधिकार का हनन नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा करना है।
किसी भी देश एवं वहां की कानून-व्यवस्था की नींव, उस देश की पुलिस होती है। हमारे देश की पुलिस भी समाज में अहम भूमिका निभाती है। देश की आम जनता आखिर पुलिस से क्या अपेक्षांए रखती है? देश के नागरिक मित्रवत पुलिस चाहते हैं, जो अमीरों और गरीबों के साथ समान व्यवहार करे।
ऐसे पुलिस थाने हों, जहाँ बिना रिश्वत के काम हो सके। हमारे देश में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों को नियंत्रण में रखा जा सके। इन अपेक्षाओं की पूर्ति हेतु सार्वजनिक पदों पर निष्पक्षता और कौशल के साथ काम करने वाले प्रतिभाशाली अधिकारियों को चुना जाना चाहिए। दुर्भाग्य से, आइपीएस नियुक्तियों के मामले में ऐसा नहीं है।
कई अधिकारियों को सत्ताधारी दल के साथ उनके संबंधों और वफादारी के आधार पर बड़े पद दिए जाते हैं। भारत में आईपीएस अधिकारियों को उनकी नियुक्ति के शुरुआती वर्षों में भी स्वतंत्र जिम्मेदारी उठाने की अपेक्षा की जाती है। यही कारण है कि यह पद न केवल प्रतिष्ठित माना जाता है, बल्कि विश्वविद्यालय से निकले एक युवा के अद्वितीय विश्वास से भी भरा होता है।
हालांकि, वर्तमान में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के बीच ईमानदारी के गिरते स्तर को देखना दुखद हो चला है। ऐसे में उनके कनिष्ठ अधिकारियों के लिए रोल मॉडल की क्या उम्मीद की जा सकती है। हाल ही में मुंबई के एक पूर्व कमिश्नर के खिलाफ कथित रंगदारी का मामला दर्ज किया गया है।
तमिलनाडु में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर एक महिला अधिकारी के यौन उत्पीड़न से संबंधि मामले में आरोप पत्र दाखिल किया गया है। भारत को एक ऐसे पुलिस बल की आवश्यकता है, जो उत्तरदायी और सम्मानित हो। उसके लिए हमें यह जानने की जरूरत है कि अक्सर समाज के मध्यम और निचले वर्गों से आने वाले अधिकारी भी पुलिस अकादमी के ठोस प्रशिक्षण के बाद पथभ्रष्ट क्यों हो जाते हैं ? यह किसी दोषपूर्ण चयन का परिणाम है, या रोल मॉडल का अभाव है ?
रक्षकों के हाथों मानवाधिकार का हनन क्यों ?
देश की पुलिस के कामकाज पर लगातार प्रश्न चिन्ह लगते जा रहे हैं। कभी आपराधिक न्याय से जुड़े मामलों में अधूरी और लचर जांच के लिए उन्हें न्यायालय में लताड़ा जा रहा है, तो कभी पुलिस थानों में मानवाधिकार के उल्लंघन संबंधी मामलों में उनकी छवि धूमिल हो रही है।
पुलिस की लापरवाही से जुड़े कुछ तथ्यः
⦁ नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एन सी आर बी) डेटा से पता चलता है कि 2010 और 2019 के बीच पुलिस हिरासत में प्रतिवर्ष औसतन 100 मौतें होती रही हैं। भले ही इनके पीछे भिन्न कारण रहे हों, फिर भी हिरासत में होने वाली मृत्यु पुलिस को संदेह के घेरे में ला खड़ा करती है।
सुधारात्मक कदम क्या हो सकते हैंः
⦁ गिरफ्तारी की संख्या को कम किया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट आदेश है कि प्रत्येक गिरफ्तारी न्यायोचित हो, और अनिवार्यता के पैमाने पर खरी उतरे। एन सी आर बी डेटा से पता चलता है कि भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत होने वाली गिरफ्तारियों में कुछ कमी आई है। 2010 से 2019 के बीच दंड संहिता के अंतर्गत होने वाले अपराधों में बढ़ोत्तरी के बावजूद पिछले पांच वर्षों में गिरफ्तारियों में आई पांच लाख की कमी मायने रखती है।
⦁ नेशनल पुलिस कमीशन एवं विधि आयोग ने अपनी 154वीं और मलीमथ आयोग रिपोर्ट के अलावा प्रकाश सिंह, बनाम भारत सरकार मामले में सिफारिश की गई है कि जांच को पारदर्शी और बेहतर बनाने के लिए पुलिस से इसे अलग रखा जाना चाहिए। जांच के लिए एक पृथक विंग होने से दोषी से स्वीकारोक्ति के लिए अनुचित माध्यमों का प्रयोग नहीं होगा, और इसे पेशेवर दृष्टिकोण से संपन्न किया जा सकेगा।
⦁सिविल पुलिस के पास काम का अतिरिक्त बोझ होता है। इसलिए वह जल्द-से-जल्द अपराध की स्वीकारोक्ति में फंस जाती है। जांच अधिकारी के लिए मामलों की सीमा निर्धारित कर दी जानी चाहिए। साइबर अपराध जैसे मामलों में उसकी सहायता के लिए विशेषज्ञ होने चाहिए।
⦁ मानवाधिकार के संदर्भ में पुलिस के लिए अनेक दिशानिर्देश जारी किए गए हैं। इनमें हिरासत में लिए गए व्यक्ति को फोन करने तथा वकील करने की सुविधा देने आदि को शामिल किया गया है।
⦁ थानों में सीसीटीवी कैमरा लगाए जाने लगे हैं।
एनसीआरबी डाटा से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में पुलिस के विरुद्ध प्रत्येक वर्ष 47.2 आपराधिक मामले दर्ज किए जाते हैं। पुलिस कर्मचारियों और अधिकारियों को यह भान होना चाहिए कि उनका काम मानवाधिकार का हनन नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा करना है।
हाल ही में पुलिस महानिदेशकों का वार्षिक सम्मेलन टेकनपुर (ग्वालियर) में सम्पन्न हुआ है। अन्य हस्तियों के साथ प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री भी इस सम्मेलन में शामिल हुए। इससे पहले गुवाहटी और कच्छ में हुए पुलिस सम्मेलनों में भी प्रधानमंत्री ने अपना समय दिया था। इससे पहले पुलिस के प्रति किसी भी नेता ने शायद ही इतनी संवेदनशीलता दिखाई हो।
इसके बावजूद अभी हमारे देश में औपनिवेशिक पैटर्न पर चली आ रही पुलिस व्यवस्था को प्रगतिशील, आधुनिक एवं प्रजातांत्रिक देश की जनता की भावनाओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए सरकार के प्रयासों में देर हो रही है। पुलिस को ‘स्मार्ट’ बनाने का प्रधानमंत्री का स्वप्न धरातल के स्तर पर साकार नहीं हुआ है।
⦁ 1998 में बनी रेबेरो कमेटी ने भी पुलिस सुधार से जुड़ी अपनी रपट सरकार को दे दी। लेकिन ये सब रिपोर्ट ठंढे बस्ते में पड़ी हैं और पुलिस सुधार के लिए कोई ठोस कदम अभी तक नहीं उठाया जा सका है। पुलिस के बुरे बर्ताव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आम लोग पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने में भी हिचकिचाते हैं।
⦁ सन् 2006 में सोली सोराबजी की अध्यक्षता में मॉडल पुलिस अधिनियम तैयार किया गया था, जिसे आज तक लागू नहीं किया गया है।
⦁ 22 सितम्बर 2006 को उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में केन्द्र एवं राज्य सरकारों को पुलिस सुधार से संबंधित सात दिशा-निर्देशों के पालन का आदेश दिया था। न्यायालय के इस आदेश देने के पीछे दो उद्देश्य थे – (1) पुलिस के लिए कार्यात्मक स्वायत्तता एवं (2) पुलिस की जवाबदेही में वृद्धि। दोनों ही मानकों का उद्देश्य पुलिस संगठनात्मक प्रदर्शन एवं निजी आचरण में सुधार करना था। इस आदेश को दिए दस वर्ष से भी अधिक बीत चुके हैं। परन्तु राज्य सरकारें इन्हें अमल में नहीं ला सकी हैं।
⦁ पुलिस विभाग में बहुत ही ज्यादा भ्रम की स्थिति बनी हुई है। पहले, पूरे देश के लिए एक पुलिस विधेयक हुआ करता था। लेकिन अब 17 राज्यों ने इससे जुड़े अलग-अलग कानून अधिनियमित कर रखे हैं। बाकी के राज्यों ने इससे संबंधित कार्यकारी आदेश जारी कर रखे हैं।
⦁ भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों ने नक्सलियों की समस्या, पंजाब में आतंकवाद, त्रिपुरा के विद्रोह आदि को बडी कुशलता से नियंत्रण किया है। परन्तु सरकारी अनुक्रम में उन्हें अभी भी उचित स्थान नहीं दिया गया है। इससे इन अधिकारियों में पहल करने की कमी आई है। इनके प्रदर्शन पर भी असर पड़ा है।
⦁ हमारे देश में लगभग 24,000 पुलिस थाने हैं। पुलिस बल की संख्या लगभग 20 लाख 26 हजार है। ये लोग अपनी क्षमता का मात्र 45 प्रतिशत ही राष्ट्र को दे पा रहे हैं। बुनियादी ढांचे की कमी, जनशक्ति एवं कार्यात्मक स्वायत्तता का अभाव, इसका मुख्य कारण है। अगर देश की पुलिस पूरी तरह से सक्षम होगी, तो राष्ट्र की माओवादी, कश्मीरी आतंकवाद तथा उत्तरपूर्वी राज्यों के अलगाववादी आंदोलन से आसानी से निपटा जा सकेगा। लोग अपने को सुरक्षित महसूस करेंगे। भारत की तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था को भी तभी सही सफलता मिल सकती है।