ब्लॉगः राष्ट्रकवि दिनकर की कविताएं आज भी हैं जगाती हैं जोश
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: September 23, 2023 09:28 AM2023-09-23T09:28:17+5:302023-09-23T09:29:11+5:30
1962 के युद्ध में चीन से पराजय के बाद उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उसका जिम्मेदार माना तो उन्हें भी नहीं ही बख्शा। लेकिन उनकी साहित्य सेवा को दूसरे पहलू से देखें तो वे हमें ‘उर्वशी’ जैसी प्रेम व सौंदर्य की अद्भुत अनुभूतियों से भरी कृति भी दे गए हैं, जिसमें उनके द्वारा की गई कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्तियां इस बात की घोषणा करती लगती हैं कि वे अपने कवि विवेक की सीमा निर्धारित करने वाले किसी भी खांचे में फिट नहीं बैठते।
बिहार के बेगूसराय जिला मुख्यालय से बीस किलोमीटर दक्षिण गंगा के तटवर्ती सिमरिया गांव में 1908 में 23 सितंबर को एक भूमिहार परिवार में माता मनरूपा देवी की कोख से जन्मे और 24 अप्रैल, 1974 को मद्रास में इस संसार को अलविदा कह गए स्मृतिशेष रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आम तौर पर अपनी राष्ट्रीयताप्रधान और वीर रस से ओतप्रोत कविताओं के लिए जाने जाते हैं। इसके लिए भी कि उनकी राष्ट्रीयता या भारतीयता, साथ ही देशप्रेम की धारणाएं और विचार किसी नई या पुरानी किसी भी लकीर की फकीरी नहीं करते। साफ कहें तो अपने वक्त में जो कोई भी उन्हें अपनी धारणाओं के प्रतिकूल लगा, उसकी आलोचना में या उसे खरी-खरी सुनाने में उन्होंने कुछ भी उठा नहीं रखा।
1962 के युद्ध में चीन से पराजय के बाद उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को उसका जिम्मेदार माना तो उन्हें भी नहीं ही बख्शा। लेकिन उनकी साहित्य सेवा को दूसरे पहलू से देखें तो वे हमें ‘उर्वशी’ जैसी प्रेम व सौंदर्य की अद्भुत अनुभूतियों से भरी कृति भी दे गए हैं, जिसमें उनके द्वारा की गई कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्तियां इस बात की घोषणा करती लगती हैं कि वे अपने कवि विवेक की सीमा निर्धारित करने वाले किसी भी खांचे में फिट नहीं बैठते। खांचे में तो खैर उनका वह गद्य साहित्य भी नहीं ही बैठता जो न परिमाण के मामले में कम है, न ही गुणवत्ता के।
बहरहाल, किसी खांचे या सांचे में फिट न होने के ही कारण पराधीनता के दौरान जहां उन्हें ‘विद्रोही कवि’ और स्वतंत्रता के बाद ‘राष्ट्रकवि’ कहा गया, वहीं उनके द्वारा अपनी कविताओं में किए गए कई आह्वानों ने इन दोनों की परिधियां फलांग कर विभिन्न आंदोलनों में कुछ ऐसी जगह बनाई कि उनके लिए जनकवि का आसन भी सुरक्षित हो गया।
निस्संदेह यह भी उनके किसी खांचे में न बैठने और बेलाग-लपेट होने की वजह से ही है कि उनकी कविताओं के संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उस दौर में थे जब वे कविताएं लिखी गईं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कह गए हैं कि वे हिंदी तो हिंदी, अहिंदीभाषियों में भी अपने समय के सबसे लोकप्रिय हिंदी कवि थे। 1959 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया तो ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उसी साल उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। 1972 में उन्हें ‘उर्वशी’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। 1947 में स्वतंत्रता के बाद वे प्रचार विभाग के उपनिदेशक, फिर मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। 1952 में वे राज्यसभा के सदस्य चुने गए। भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति और भारत सरकार के हिंदी सलाहकार भी रहे।