ब्लॉग: 50 साल पहले जब पीलू मोदी अपने गले में तख्ती लटकाकर पहुंचे थे संसद...
By अभय कुमार दुबे | Published: March 24, 2023 10:03 AM2023-03-24T10:03:28+5:302023-03-24T10:03:28+5:30
राजनीति की समीक्षा मनगढ़ंत साजिशों के जरिये करने के पहले भी कई उदाहरण सामने आते रहे हैं. आज भी ऐसी ‘कांस्पिरेसी थ्योरीज’ हमें सुनने को मिलती रहती है.

ब्लॉग: 50 साल पहले जब पीलू मोदी अपने गले में तख्ती लटकाकर पहुंचे थे संसद...
जिन दिनों राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की चर्चा अपने चरम पर थी, उन दिनों तीन और घटनाएं हुई थीं. गौतम अडानी के खिलाफ हिंडनबर्ग रपट आई थी, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया था जिससे सरकार की कुछ किरकिरी होती थी, और बीबीसी की गुजरात दंगों पर डॉक्यूमेंट्री रिलीज हुई थी. इन चारों घटनाओं को जोड़कर पत्रकार हल्कों में खुसफुसाहट हो रही थी कि अंतरराष्ट्रीय ताकतों ने मोदी के खिलाफ एक ‘नैरेटिव’ तैयार कर लिया है, और इसीलिए एक साथ इतनी घटनाएं सरकार के विपरीत घटित हो रही हैं.
कुल मिलाकर चाहे सरकार के विपरीत खड़े समीक्षक हों, या सरकार को हमदर्दी से देखने वाले समीक्षक हों—सभी का मन कर रहा था कि इस खुसफुसाहट पर यकीन कर लें. जाहिर है कि आज यह बात कोई नहीं कह रहा है.
डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लग चुका है. उसका हल्लागुल्ला भी खत्म हो गया है. अडानी प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बना दी है. संसद में इस सवाल पर विपक्ष और सरकार के बीच युद्ध जारी है. भारत जोड़ो यात्रा धीरे-धीरे लोगों की याद से मिटती जा रही है. सुप्रीम कोर्ट पहले की तरह अपना काम करने में लगा हुआ है.
इन घटनाओं को जोड़कर जो एक साजिश का रूप दिया गया था, वह अब किसी की जुबान पर नहीं है. मनगढ़ंत साजिशों के जरिये राजनीति की समीक्षा करने का यह कोई नया उदाहरण नहीं था. इस तरह की ‘कांस्पिरेसी थ्योरीज’ आए दिन हमारे कानों में पड़ती रहती हैं. एक तरह से ये राजनीति के कालेबाजार की नुमाइंदगी करती हैं. इन्हें कौन गढ़ता है? किसी को नहीं पता.
कोई कभी भी आपके कान में फुसफुसाकर कह सकता है कि अमुक नेता अमुक की जड़ काटने में लगा हुआ है. अगर आप इस खबर का प्रमाण मांगेंगे तो बदले में केवल एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट मिलेगी. फलाने ने फलाने को ‘डंप’ करने की ठान ली है. साजिश के चश्मे से देखने पर देश में हो रही हर घटना में विदेशी हाथ दिखाई पड़ सकता है.
एक जमाने में न जाने कितने नेताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और संगठनों को या तो सीआईए का एजेंट कहा जाता था, या फिर केजीबी का एजेंट. वह शीतयुद्ध का युग था, और ऐसा कहने के लिए किसी को सबूत देने की जरूरत नहीं होती थी. कहने वाला इस अंदाज से बोलता था जैसे कि उसने संबंधित नेता या बुद्धिजीवी को अपनी आंखों से लैंगले स्थित सीआईए के दफ्तर में षड्यंत्रकारी बातें करते हुए देखा है.
यही कारण है कि इस रवैये की आलोचना करने के लिए करीब 50 साल पहले पीलू मोदी को अपने गले में एक तख्ती लटकाकर संसद में आना पड़ा था. तख्ती पर लिखा था, ‘मैं सीआईए का एजेंट हूं.’ कहना न होगा कि स्टॉक मार्केट एक बार ठंडा पड़ सकता है, पर ‘कांस्पिरेसी थ्योरी’ का बाजार कभी ठंडा नहीं पड़ सकता.