ब्लॉग: संसद की गरिमा के लिए सांसदों को गंभीर बहस का अवसर मिले, मुद्दों पर विचार-विमर्श हो
By विश्वनाथ सचदेव | Published: December 1, 2021 12:15 PM2021-12-01T12:15:13+5:302021-12-01T12:16:48+5:30
कानूनों की वापसी करने का निर्णय लेने में सरकार को पूरा एक साल लग गया, और मिनटों में कानूनों को निरस्त कर दिया गया. कोई बहस नहीं, कोई विचार-विमर्श नहीं. संसद को इस बारे में सरकार से सवाल-जवाब का अवसर मिलना ही चाहिए था.
पिछले दिनों हमने संविधान-दिवस मनाया. 26 नवंबर 1949 को देश ने अपना संविधान पूरा करके उस पर हस्ताक्षर किए थे. हमारे संविधान-निर्माताओं के ये हस्ताक्षर देश के हर नागरिक का प्रतिनिधित्व करते हैं.
ये हस्ताक्षर कुल मिलाकर इस बात की सहमति और स्वीकृति हैं कि देश का संविधान सर्वोपरि है. हमारे प्रधानमंत्री कई बार इसे हमारा सबसे बड़ा धर्म-ग्रंथ कह चुके हैं.
प्रधानमंत्री मोदी जब सांसद बनकर पहली बार संसद-भवन पहुंचे थे तो उन्होंने संसद-भवन की सीढ़ियों पर शीश झुकाकर जनतंत्र के सर्वोच्च मंदिर को प्रणाम किया था. जनतंत्र का यह मंदिर और धर्मग्रंथ दोनों, हमारे देश की गरिमा के प्रतीक हैं. इनका सम्मान उन मूल्यों और आदर्शो का सम्मान है जो जनतांत्रिक व्यवस्था की महत्ता को रेखांकित करते हैं.
उस दिन जब संसद में संविधान-दिवस मनाया गया तो सांसदों को प्रधानमंत्री के अलावा राष्ट्रपति ने भी संबोधित किया था. एक चीज जो खलने वाली थी, वह कार्यक्रम का विपक्ष द्वारा बहिष्कार था.
इस निर्णय के कारण हो सकते हैं, पर जनतांत्रिक मूल्यों और संविधान की गरिमा का तकाजा था कि संसद के सभी पक्ष वहां उपस्थित होते. यह कार्यक्रम सरकार का नहीं था, पूरी संसद का था.
संविधान में अपनी आस्था और निष्ठा प्रकट करने के इस अवसर को किसी भी पक्ष द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम बनाना उचित नहीं कहा जा सकता. सरकार और विपक्ष दोनों का कर्तव्य बनता था कि वे इस अवसर की गरिमा और पवित्रता की रक्षा के प्रति सजग दिखाई देते. पर ऐसा हुआ नहीं.
दोनों पक्षों की बराबर की भागीदारी होनी चाहिए थी इस कार्यक्रम में. सभी पक्षों को अवसर मिलना चाहिए था संविधान के प्रति अपनी निष्ठा को स्वर देने का. यह सहभागिता ही जनतांत्रिक व्यवस्था को महत्वपूर्ण बनाती है. गरिमा प्रदान करती है.
अच्छी बात है कि इस सहभागिता को संसद का सत्र प्रारंभ होने से पहले प्रधानमंत्री ने फिर से रेखांकित किया. इसे सुनिश्चित करने का काम भी मुख्यत: सत्ता-पक्ष को ही करना होता है. पर, दुर्भाग्य से संसद के पिछले कई सत्रों में सहभागिता की भावना का अभाव दिखाई दिया है.
दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को दोषी ठहरा सकते हैं, ठहराते भी हैं. लेकिन इस बात को भुलाया नहीं जाना चाहिए कि संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले इसका दायित्व मुख्यत: सत्तारूढ़ पक्ष पर ही होता है.
जनतंत्र में यह अवसर संसद के कामकाज में सहभागिता से परिभाषित होता है. सहभागिता का अर्थ है विचार-विमर्श में हिस्सेदारी. मुद्दों पर बहस ही वह माध्यम है जिससे सदन में सदस्यों की सहभागिता सुनिश्चित होती है.
लेकिन जिस तरह से संसद में विवादास्पद कृषि-कानूनों की वापसी का विधयेक पारित हुआ, वह इस सहभागिता को अंगूठा दिखाने वाला काम ही कहा जा सकता है. लोकसभा में सिर्फ तीन मिनट और राज्यसभा में नौ मिनट में इन कानूनों को वापस ले लिया गया.
कानूनों की वापसी करने का निर्णय लेने में सरकार को पूरा एक साल लग गया, और मिनटों में कानूनों को निरस्त कर दिया गया. कोई बहस नहीं, कोई विचार-विमर्श नहीं. संसद को इस बारे में सरकार से सवाल-जवाब का अवसर मिलना ही चाहिए था.
यह कानून वापस लेने के कुछ घंटे पहले ही प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि सरकार खुले दिमाग से हर मुद्दे पर सभी सवालों के जवाब देने के लिए तैयार है. प्रधानमंत्री सदन में सार्थक बहस की अपेक्षा कई बार कर चुके हैं. कई बार कह चुके हैं कि गरिमापूर्ण, गंभीर बहस होनी चाहिए. संसद की गरिमा और महत्व का तकाजा है कि सांसदों को गंभीर बहस का अवसर मिले. मुद्दों पर विचार-विमर्श हो.
बहरहाल, संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत को अच्छा तो नहीं ही कहा जा सकता. सत्र का पहला ही कानून बिना किसी बहस के पारित हो, यह कोई शुभ संकेत नहीं है. उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों पक्ष, सरकार और विपक्ष, इस संदर्भ में अपने-अपने दामन में झांकेंगे.
विपक्ष सिर्फ आलोचना करने या रोड़े अटकाने के लिए ही नहीं होता, रास्ता सुझाने के लिए भी होता है. यह बात सरकारी पक्ष को भी समझनी होगी. सरकार को यह भी समझना होगा कि मतदाता ने सिर्फ सरकार को ही नहीं चुना, विपक्ष को भी चुना है. इसलिए जरूरी है कि दोनों एक-दूसरे का सम्मान करें.
पर इससे भी महत्वपूर्ण बात उस मतदाता के सम्मान की है, जिसने दोनों को चुना है. कृषि-कानूनों को वापस लेने के प्रधानमंत्री के निर्णय को उनके समर्थक राष्ट्र-हित में लिया गया महान निर्णय बता रहे हैं, लेकिन यह बात सदन में होती तो बेहतर होता.
तब यह भी पूछा जा सकता था कि कृषि-कानूनों के संदर्भ में वह क्या था जो राष्ट्र-हित में नहीं था? इस तरह के अवसर बहस से ही मिल सकते हैं. सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष, दोनों को ऐसे अवसरों की संभावनाएं बढ़ाने के बारे में सोचना होगा. यह याद रखना जरूरी है कि बहस संसद की प्राणवायु है!