पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: मनुष्यों के साथी रहे हाथी अब क्यों बनते जा रहे हैं बागी?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 12, 2020 06:20 AM2020-08-12T06:20:47+5:302020-08-12T06:20:47+5:30
हाथी को जब भूख लगती है और जंगल में कुछ मिलता नहीं या फिर जल-स्त्रोत सूखे मिलते हैं तो वे खेत या बस्ती की ओर आ जाते हैं.
पंकज चतुर्वेदी
कुछ महीनों पहले केरल में एक हाथी को बारूद खिलाने से हुई मौत के बाद मंत्री से लेकर आम लोग तक सब दुखी थे. कई जगह आंदोलन हुए, ज्ञापन - खतो किताबत भी हुई और मसला आया-गया हो गया. शायद ही लोगों को पता हो कि जून महीने के दूसरे सप्ताह के बाद दस दिनों में अकेले छत्तीसगढ़ में छह हाथी संदिग्ध हालात में मरे मिले. हाथियों के समूह यहां आए-दिन खेती या गांव-घर तहस-नहस करते हैं. भले ही हम कहें कि हाथी उनके गांव-घर में घुस रहा है, हकीकत यही है कि प्राकृतिक संसाधनों के सिमटने के चलते भूखा-प्यासा हाथी अपने ही पारंपरिक इलाकों में जाता है. दुखद है कि वहां अब बस्ती, सड़क का जंजाल है. सरकारी रिपोर्ट कहती है कि औसतन हर साल हाथी के उत्पातों से कोई पांच सौ लोग मारे जाते हैं जबकि सौ हाथी भी इंसान से टकराव में अपनी जान गंवाते हैं.
दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है. भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है. इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई है. जिस देश में हाथी के सिर वाले गणोशजी को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है, वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है.
पिछले एक दशक के दौरान मध्य भारत में हाथी का प्राकृतिक पर्यावास कहलाने वाले झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा राज्यों में हाथियों के बेकाबू झुंड के हाथों एक हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. धीरे-धीरे इंसान और हाथी के बीच के रण का दायरा विस्तार पाता जा रहा है. देश में हाथी के सुरक्षित कॉरिडोरों की संख्या 88 है, इसमें 22 पूर्वोत्तर राज्यों, 20 केंद्रीय भारत और 20 दक्षिणी भारत में हैं. कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात वर्षो में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं. अकेले पिछले साल 43 लोगों की मौत हाथियों के चलते हुई. उससे पिछले साल 92 लोग मारे गए थे. झारखंड की ही तरह बंगाल व अन्य राज्यों में आए-दिन हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़ी फसल, घर, इंसान- जो भी रास्ते में आए उसे कुचल कर रख देता है. दक्षिणी राज्यों के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं.
जानना जरूरी है कि हाथियों को 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटों तक भटकना पड़ता है. हाथी दिखने में भले ही भारी-भरकम होते हैं लेकिन उनका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है. थोड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है. ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानी जंगल को जब नुकसान पहुंचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिड़ंत होती है.
सदियों से हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था. गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘एलीफेंट कॉरीडोर’ कहा गया. जब कभी पानी या भोजन का संकट होता है, गजराज ऐसे रास्तों से दूसरे जंगलों की ओर जाता है जिनमें मानव बस्ती न हो. सन 1999 में भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रलय ने इन कॉरीडारों पर सर्वे भी करवाया था. उसमें पता चला था कि गजराज के प्राकृतिक कॉरीडोर से छेड़छाड़ के कारण वह व्याकुल है. हरिद्वार और ऋषिकेश के आसपास हाथियों के आवास हुआ करते थे. आधुनिकता की आंधी में जंगल उजाड़ कर ऐसे होटल बने कि अब हाथी गंगा के पूर्व से पश्चिम नहीं जा पाते हैं. अब वह बेबस हो कर सड़क या रेलवे ट्रैक पर चले जाते हैं और मारे जाते हैं.
बढ़ती आबादी के भोजन और आवास की कमी को पूरा करने के लिए जमकर जंगल काटे जा रहे हैं. हाथी को जब भूख लगती है और जंगल में कुछ मिलता नहीं या फिर जल-स्त्रोत सूखे मिलते हैं तो वे खेत या बस्ती की ओर आ जाते हैं. मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है. यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो जंगलों का सर्वोच्च गौरव कहलाने वाले गजराज को सर्कस, चिड़ियाघर या जुलूसों में भी देखना दुर्लभ हो जाएगा.