‘ओ दर्दमंद दिल दर्द दे चाहे हजार, दस मई का शुभ दिन भुलाना नहीं’
By कृष्ण प्रताप सिंह | Updated: May 11, 2025 22:08 IST2025-05-11T22:07:17+5:302025-05-11T22:08:15+5:30
बागी हो गए थे कि कंपनी द्वारा किए जा रहे नाना प्रकार के भेदभावों और शोषणों ने देशवासियों के साथ उनका और उनके परिवारों का सुख-चैन भी छीन रखा है.

सांकेतिक फोटो
वर्ष 1857 में वह आज का ही दिन था दस मई का, जब हमारे देश ने रणबांकुरों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी के विरुद्ध पहले स्वतंत्रता संग्राम का आगाज कर उसके आकाओं के होश फाख्ता कर दिये थे. इस संग्राम की अगुआई देश की राजधानी दिल्ली से 60-70 किलोमीटर दूर स्थित मेरठ की छावनी में इस कंपनी के देसी सैनिकों ने ही की थी, जो इस बात को लेकर बागी हो गए थे कि कंपनी द्वारा किए जा रहे नाना प्रकार के भेदभावों और शोषणों ने देशवासियों के साथ उनका और उनके परिवारों का सुख-चैन भी छीन रखा है.
उस दिन रविवार यानी साप्ताहिक छुट्टी का दिन था और इन सैनिकों के बड़े इरादे से अंजान उनके अंग्रेज अधिकारी छुट्टी का भरपूर आनंद लेने के मूड में थे. ऐसे में सैनिकों के खून में उबाल आया और उन्होंने सबसे पहले मेरठ की जेल पर हमला किया तो उनके रास्ते में कोई बड़ी कहें या अप्रत्याशित बाधा नहीं आई.
जब तक अंग्रेज अधिकारी उन्हें काबू करने के माकूल उपाय सोच पाते, उन्होंने जेल में कहर-सा बरपा कर वहां बंद अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया. हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के शब्दों में कहें तो, बूढ़े भारत में भी फिर से नई जवानी आ गई थी और इस बगावत के रूप में उसका स्वतंत्रता संग्राम उसके बड़े हिस्से में फैल गया था.
अलबत्ता, वह अंग्रेजों को देश से निकाल बाहर करने की अपनी मंजिल नहीं पा सका था, लेकिन जैसा इतिहासकार कहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम कभी विफल नहीं होते, वह भी इंग्लैंड की तत्कालीन महारानी विक्टोरिया को इतना विवश करने में सफल रहा था कि वे भारत की सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से छीनकर अपने नियंत्रण में ले लें.
जाहिर है कि यह सब एक-दो दिन में नहीं हुआ था. आगे चलकर दस मई जागरूक देशप्रेमियों की कोशिशों से उस दौर का राष्ट्रीय त्यौहार बनी तो जब भी आती, यह गीत देशवासियों का कंठहार बन जाता: ‘ओ दर्दमंद दिल दर्द दे चाहे हजार, दस मई का शुभ दिन भुलाना नहीं. इस रोज छिड़ी जंग आजादी की, बात खुशी की गमी लाना नहीं.
लेकिन उसके अच्छे दिन, सच पूछिये तो, 1907 में आए, जब अंग्रेजों ने इस स्वतंत्रता संग्राम की पचासवीं वर्षगांठ पर उसमें अपनी विजय का जश्न मनाने की सोची और उसके भारतीय नायकों को कोसने लगेे. तब लंदन में कानून की पढ़ाई कर रहे विनायक दामोदर सावरकर ने वहां रह रहे हिंदुस्तानी युवाओं व छात्रों को ‘अभिनव भारत’ और ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ के बैनर पर संगठित कर ‘1857 के शहीदों की इज्जत और लोगों को उसका सच्चा हाल बताने के लिए’ अभियान शुरू किया.
लेकिन बाद में ‘अभिनव भारत’ सोसायटी टूट गई और वहां भारतीयों द्वारा दस मई का त्यौहार मनाने का सिलसिला टूट गया. बाद में इसकी क्षतिपूर्ति हुई कि अमेरिका में हिंदुस्तान गदर पार्टी बनी और उसने वहां हर साल इसे मनाना शुरू कर दिया. अफसोस की बात है कि अब स्वतंत्र भारत में दस मई को रस्मी आयोजन भी नहीं होते, जबकि यह ऐसी तारीख है, जिसकी यादें हमें अपनी भविष्य की लड़ाइयों के लिए बल दे सकती है.