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कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग: अहिंदीभाषियों का हिंदी के विकास में योगदान

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 10, 2019 08:26 IST

पूर्वोत्तर भारत में गोपीनाथ बरदलै से लेकर पियोंग तेमजन जमीर, परेशचंद्र देवशर्मा, रजनीकांत चक्र वर्ती और नवीनचंद्र कलिता ने हिंदी की सेवा की। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य यह है कि देवनागरी के लिए पूर्वोत्तर के ही एक अहिंदीभाषी ने शहादत दी थी। 

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आज जो हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, उसे गढ़ने में हिंदीभाषियों से अधिक कहीं अहिंदीभाषियों का अवदान रहा है। आधुनिक हिंदी गद्य का निर्माण अहिंदीभाषी बंगाल के फोर्टबिलियम कालेज में ही हुआ। हिंदी के पहले एमए गैर-हिंदीभाषी नलिनी मोहन सान्याल थे जिन्होंने कलकत्ता विवि से 1921 में वह डिग्री ली थी। गैर-हिंदीभाषी ईश्वरचंद्र विद्यासागर हिंदी के परीक्षक थे। बांग्लाभाषी राजा राममोहन राय ने हिंदी में बंगदूत निकाला तो अमृतलाल चक्रवर्ती ने हिंदी बंगवासी और शारदा चरण मित्न ने देवनागर। हिंदी का पहला समाचार पत्न ‘उदंत मरतड’ अहिंदीभाषी क्षेत्न कलकत्ता (कोलकाता) से 30 मई 1826 को निकला था। वह साप्ताहिक था। हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्न ‘समाचार सुधावर्षण’ भी कलकत्ता (कोलकाता) से ही निकला था और उसे बांग्लाभाषी श्यामसुंदर सेन ने निकाला था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कलकत्ता में हिंदी सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष का पदभार संभाला था।

इसी कड़ी में महाराष्ट्र की हिंदी को देन इतिहास स्वीकृत तथ्य है। मराठी भाषी संतों ने हिंदी की सेवा की तो राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई। आधुनिक काल के मराठीभाषी हिंदीसेवियों- काका कालेलकर, विनोबा भावे, माधवराव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराड़कर, राहुल बारपुते, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर, मनोहर खाडिलकर, राजेंद्र धोड़पकर, जगदीश उपासने, अजित वडनेरकर, आलोक पराड़कर, मनोज खाडिलकर और आनंद देशमुख ने हिंदी के विकास में योगदान किया तो  हिंदी पत्नकारिता के विकास में पूर्वी भारत के अहिंदीभाषियों सखाराम गणोश देउस्कर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, उत्तर व मध्य भारत के अहिंदीभाषियों चिंतामणि घोष, क्षितिन्द्र मोहन मित्न, विद्याभास्कर, मनोरंजन कांजिलाल, नारायण दत्त, तुषार कांति घोष, लक्ष्मीशंकर व्यास, रामचन्द्र नाहर बापट, भगवानदास अरोड़ा, राहुल देव, रत्नशंकर व्यास, परितोष चक्र वर्ती, गौतम चटर्जी, हर्षवर्धन आर्य, कल्लोल चक्र वर्ती, रंजीव ने योगदान किया। 

पूर्वोत्तर भारत में गोपीनाथ बरदलै से लेकर पियोंग तेमजन जमीर, परेशचंद्र देवशर्मा, रजनीकांत चक्र वर्ती और नवीनचंद्र कलिता ने हिंदी की सेवा की। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य यह है कि देवनागरी के लिए पूर्वोत्तर के ही एक अहिंदीभाषी ने शहादत दी थी। 

बिनेश्वर ब्रह्म असम के ऐसे बोडो साहित्यकार थे जिन्होंने देवनागरी लिपि के लिए शहादत दे दी। देवनागरी के समर्थक होने के कारण श्री ब्रह्म को उग्रवादियों की ओर से धमकी मिलती रहती थी; पर उन्होंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। वे देवनागरी को सभी भारतीय भाषाओं के बीच संबंध बढ़ाने वाला सेतु मानते थे।  उनके प्रयास से बोडो पुस्तकें देवनागरी लिपि में छपकर लोकप्रिय होने लगीं। इससे उग्रवादी बौखला गए और 19 अगस्त, 2000 की रात में उनके निवास पर ही गोलीवर्षा कर उनकी हत्या कर दी गई। उस हत्याकांड के बाद एनडीएफबी ने उसकी जिम्मेदारी ली। देवनागरी का तिलक अपने लहू से करने वाले शहीद बिनेश्वर ब्रह्म इसीलिए ‘देवनागरी के नवदेवता’ कहे गए। 

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