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एन. के. सिंह का ब्लॉग: त्रिशंकु लोकसभा होने पर राष्ट्रपति क्या करेंगे?

By एनके सिंह | Updated: May 19, 2019 06:27 IST

दुर्भाग्य से 70 साल के बाद भी लगभग एक दर्जन फैसले और दो प्रमुख आयोगों के गठन के बावजूद यह स्पष्ट रूप से व्याख्यायित नहीं है कि त्रिशंकु लोकसभा (या राज्य की विधानसभा) की स्थिति में किस क्रम से दल या दल-समूह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना होगा.

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कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद का यह कहना कि उनकी पार्टी वाले गठबंधन यूपीए को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो उनकी पार्टी प्रधानमंत्नी पद की कुर्बानी देकर गठबंधन को समर्थन देगी और इस संदर्भ में ठीक चुनाव परिणाम के दिन यानी 23 मई को कांग्रेस नेता सोनिया गांधी का देश के तमाम विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाना देश के राजनीतिक विश्लेषकों की ही नहीं, आमजन की नजर को भी राष्ट्रपति भवन को ओर बरबस ही मोड़ देती है. 

क्या करेंगे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद 17वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद? अभी तक के आकलन से लगता है कि अगर कोई दल अकेले ही पूर्ण बहुमत यानी 272 सीटें हासिल करे या कोई चुनाव पूर्व गठबंधन इतनी सीटें हासिल करे तो इन दोनों स्थितियों में राष्ट्रपति स्पष्ट रूप से दल या दल-समूह को बुलाने को बाध्य होंगे. लेकिन अगर किसी भी दल या चुनाव पूर्व गठबंधन वाले समूह को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल करना पड़ेगा. चूंकि ऐसे फैसलों में उनके पास मंत्रिमंडल की सलाह मौजूद नहीं, लिहाजा उनका विवेक अपेक्षित होता है. 

दुर्भाग्य से 70 साल के बाद भी लगभग एक दर्जन फैसले और दो प्रमुख आयोगों के गठन के बावजूद यह स्पष्ट रूप से व्याख्यायित नहीं है कि त्रिशंकु लोकसभा (या राज्य की विधानसभा) की स्थिति में किस क्रम से दल या दल-समूह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना होगा. यही वजह है कि राज्यपाल भी राज्य के चुनाव के बाद मनमानी करते रहे हैं. यहां तक कि नौ-सदस्यीय संविधान पीठ भी मशहूर बोम्मई फैसले (सन 1994) में इस मुद्दे को छू कर आगे बढ़ गई.

जस्टिस सरकारिया आयोग (सन 1988) और जस्टिस पंछी आयोग (सन 2010) ने भी शब्द और शब्द-समूह को इतना अस्पष्ट रखा कि स्थिति सुलझने की जगह उलझती गई. पंछी आयोग ने तो यहां तक कहा कि अगर संविधान संशोधन के जरिये संसद ने चुनाव के बाद लोकसभा या विधानसभाओं में ऐसी स्थितियों के लिए, जिसमें राजनीतिक दल दावे-दर-दावे कर रहे हों, स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए तो भ्रम बढ़ता जाएगा. चूंकि केंद्र-राज्य संबंध के लिए बना सरकारिया आयोग स्थिति स्पष्ट नहीं कर सका तो बोम्मई केस में संविधान पीठ को इसे संज्ञान में पूरी तरह लेना चाहिए था, लेकिन वह भी सबसे बड़ी पार्टी या समूह को बुलाना चाहिए, कह कर आगे बढ़ गई.  

सरकारिया आयोग (4:11:04) ने एक व्यवस्था दी ऐसे मामलों के लिए, लेकिन वह अस्पष्ट थी. अगर पूर्ण बहुमत दल या दल-समूह को नहीं मिलता तो आयोग के क्रम के अनुसार (1) दलों का ऐसा गठबंधन जो चुनावपूर्व बना हो और सबसे अधिक संख्या हो (2) सबसे बड़ी पार्टी जो अन्य दलों व निर्दलीय सदस्यों का समर्थन लेकर बहुमत पाने का दावा कर रही हो (3) चुनाव के बाद बने गठबंधन को जिसमें सभी दल सरकार में शामिल होने को तैयार हों और (4) चुनाव पूर्व बना ऐसा गठबंधन जिसमें कुछ दल या सदस्य सरकार में शामिल होने के लिए तैयार हों और कुछ बाहर से समर्थन करने को.

ऐसा नहीं कि सरकारिया आयोग को ‘बहुमत’ और ‘पूर्ण बहुमत’ में अंतर नहीं मालूम था. 4:11:05 में ‘पूर्ण बहुमत’ का प्रयोग है लेकिन उपरोक्त क्र म से यह नहीं पता चलता कि बहुमत वाले दल/या दल-समूह को कैसे बुलाना संभव होगा जब तक उसे सदन का विश्वास नहीं हासिल हो यानी पूर्ण बहुमत न हो. दूसरा विरोधाभास यह है कि क्रम में अगर दूसरे क्रम में सबसे बड़ी पार्टी मात्न दावा कर रही है जबकि क्रम तीन के तहत चुनाव के बाद के गठबंधन का स्पष्ट पूर्ण बहुमत दिखाई दे रहा है तो राष्ट्रपति या राज्यपाल कैसे दूसरे क्र म को वरीयता दे सकते हैं. 

पंछी आयोग ने भी इस भ्रमद्वन्द्व को लगभग यथावत छोड़ दिया. आयोग के अनुसार सबसे बड़े दल को जिसका बहुमत हो, अन्यथा चुनाव-पूर्व गठबंधन को एक दल मानते हुए अगर उसे पूर्ण बहुमत है. लेकिन अगर यह दोनों स्पष्ट स्थितियां नहीं हैं तो उसके अनुसार क्रम था (1) चुनावपूर्व गठबंधन को जिसकी संख्या सबसे ज्यादा है (2) सबसे बड़ी पार्टी को अगर वह बहुमत हासिल करने का दावा कर रही है, (3) चुनाव के बाद के गठबंधन को अगर सभी दल या सदस्य सरकार बनाने में शामिल हों और (4) चुनाव के बाद का गठबंधन जिसमें कुछ सदस्य सरकार में शामिल हों और कुछ बाहर से समर्थन करें.

यहां भी बहुमत और पूर्ण बहुमत पर आयोग अस्पष्ट है और चूंकि अकेली सबसे बड़ी पार्टी को क्रम दो में रखा गया है लिहाजा क्र म 2 और 3 में व्यावहारिक रूप से अस्पष्टता बनी रही है. उधर बोम्मई केस में नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने यह कह कर मुद्दे को नजरअंदाज किया कि वह राष्ट्रपति शासन का मामला देख रही है न कि चुनाव परिणामों के बाद की त्रिशंकु विधायिकाओं की स्थिति में राष्ट्रपति/राज्यपाल की भूमिका. सुप्रीम कोर्ट के अन्य लगभग आधा दर्जन फैसले भी कभी स्पष्ट मत नहीं दे सके, लिहाजा राष्ट्रपति के लिए कोई दिशा नहीं मिल पाई और राज्यपाल भी केंद्र के इशारे पर फैसले लेते रहे हैं. 

वर्तमान चुनाव के बाद अगर यह स्थिति बनती है कि किसी भी दल या दल-समूह को स्पष्ट बहुमत न मिले तो राष्ट्रपति के पास परस्पर विरोधाभासी फैसले ही सहारा बनेंगे और उनका विवेक सर्वोपरि होगा, हालांकि बोम्मई फैसले के प्रकाश में यह विवेक इस आधार पर प्रयुक्त होना चाहिए कि एक मजबूत सरकार बने, न कि इस आधार पर कि कौन किस विचारधारा का है. 

टॅग्स :लोकसभा चुनावरामनाथ कोविंदभारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)कांग्रेस
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