अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: उत्तरप्रदेश के चुनाव और किसान आंदोलन की विरासत
By अभय कुमार दुबे | Published: January 26, 2022 11:07 AM2022-01-26T11:07:29+5:302022-01-26T11:15:24+5:30
UP Election 2022: डबल एंटी-इनकम्बेंसी के बावजूद भाजपा को सी-वोटर के सर्वेक्षण में सारे प्रदेश में कहीं कम या कहीं ज्यादा आगे दिखा रहा है।
UP Assembly Election 2022: भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को शक है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शायद इस बार उसे पहले की तरह से वोट न मिलें. किसान आंदोलन उसकी मुख्य वजह है. लेकिन, सी-वोटर के सर्वेक्षण पर नजर डालें तो भाजपा इतनी मुश्किलों के बावजूद समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के शक्तिशाली गठजोड़ के मुकाबले तकरीबन सात फीसदी आगे नजर आ रही है. ऐसा क्यों है?
गूजर नेता ओमप्रकाश भड़ाना भाजपा का साथ छोड़ चुके हैं. सैनियों के नेता धर्मसिंह सैनी भी भाजपा छोड़कर सपा में जा चुके हैं. जाट पहले से नाराज हैं. ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाजपा का लगातार आगे रहना मजबूर करता है कि चुनावी स्थिति को नए सिरे से देखा जाए. कहीं ऐसा तो नहीं है कि चुनावी विश्लेषण करने की हमारी धुरी ही गलत हो!
हम सब यह मान कर चल रहे हैं कि पूरे उप्र में लड़ाई सीधे-सीधे भाजपा और सपा में होने जा रही है. यानी, हमने यह मान लिया है कि बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की भूमिका नगण्य हो जाएगी. लेकिन, सी-वोटर का सर्वेक्षण दिखा रहा है कि बसपा को तकरीबन 15 फीसदी वोट मिल रहे हैं. यानी, कमजोरी के साथ ही सही, लेकिन पश्चिमी उप्र में बसपा की दावेदारी मौजूद है, वह शून्य नहीं हुई है.
दूसरे, कांग्रेस और अन्य को मिलाकर देखें तो लगभग 25 प्रतिशत वोट बर्बाद हो रहे हैं. ये सभी गैर-भाजपाई वोटर हैं. अगर बसपा को मिल रहे वोटरों का आधा हिस्सा ही सपा के साथ जोड़ दिया जाए तो वह भाजपा के बराबर आ जाती है. जाहिर है कि लड़ाई उतनी सीधी भी नहीं, जितनी बताई जा रही है और चुनावी संघर्ष की यही बहुकोणीयता भाजपा के पक्ष में जा सकती है.
डबल एंटी-इनकम्बेंसी (राज्य सरकार से नाखुशी के साथ-साथ केंद्र सरकार से भी नाखुशी) के बावजूद भाजपा को यह सर्वेक्षण सारे प्रदेश में कहीं कम या कहीं ज्यादा आगे दिखा रहा है. सोचना होगा कि कहीं यह बहुकोणीयता का परिणाम तो नहीं है.
पिछले चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने एक ब्राहम्ण को हटाकर एक पिछड़े नेता को पार्टी के संगठन की बागडोर थमाई थी. इसके अलावा भी भाजपा ने अपना दल और सुहैल देव के नाम पर बनी पार्टी से गठबंधन किया एवं कई कमजोर जातियों के नेताओं को संगठन में जगह दी.
2017 के चुनाव से छह महीने में भाजपा ने पूरे प्रदेश में 200 से ज्यादा पिछड़ा वर्ग सम्मेलन किए. वह मानकर चली कि ऊंची जातियों के वोट तो उसे मिलने ही हैं इसलिए फोकस पूरा का पूरा कमजोर जातियों के वोट बटोरने पर होना चाहिए.
यही कारण है कि भाजपा के चालीस फीसदी वोटों में आधे से कहीं कम वोट ही ऊंची जातियों के थे. बाकी समर्थन उसने कमजोर जातियों से ही जुटाया था इसलिए संभावना यही दिख रही थी कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर इन्हीं समुदायों से आया हुआ कोई नेता बैठाया जाता.
लेकिन, जिस नेता को मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया गया, वह राजपूत जाति का था. और गेरुआ वस्त्र पहनने के बावजूद उसने प्रशासनिक प्राथमिकताओं और नियुक्तियों में राजपूतों का विशेष पक्ष लिया.
नतीजा यह निकला कि भाजपा का सामाजिक समीकरण बिगड़ने लगा. गैर-राजपूत ऊंची जातियों (विशेषकर ब्राहम्णों में) बेचैनियां पैदा हुईं, और साथ में गैर-यादव पिछड़ी जातियों के नेता भी कुलबुलाने लगे. आज भाजपा की चुनावी मुहिम इन्हीं समस्याओं से जूझ रही है.
प्रश्न यह है कि क्या अमित शाह योगी-प्रशासन द्वारा पैदा की गई इन समस्याओं के परे जाकर भाजपा से नाराज मतदाताओं को एक बार फिर अपनी ओर खींच पाएंगे?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को भरोसा इस बात पर है कि समाजवादी पार्टी की तरफ से मुसलमान उम्मीदवारों को प्रोत्साहन दिया जाएगा और इसकी प्रतिक्रिया जाट मतदाताओं पर होगी. वे समाजवादी पार्टी के उन उम्मीदवारों को तो समर्थन दे देंगे जिनका ताल्लुक उनकी अपनी बिरादरी से होगा.
लेकिन, राजनीतिक प्रतिनिधि चुनने के नाम पर वे शायद सपा के उम्मीदवारों को समर्थन देने के लिए जरूरी उत्साह न जुटा सकें. दरअसल, यही वह मुकाम होगा जहां पश्चिमी उप्र में किसान आंदोलन से पैदा हुई राजनीतिक चेतना की परीक्षा होगी.
इस चेतना ने हिंदू और मुसलमान किसानों के बीच राजनीतिक एकता करवाई थी. अगर चुनावी प्रतियोगिता के दबाव में यह एकता प्रभावी न रह पाई तो किसान आंदोलन की राजनीतिक विरासत तेजी से तिरोहित होती चली जाएगी.