भारत के लिए नेपाल में सक्रिय भूमिका निभाने का समय, अवधेश कुमार का ब्लॉग
By अवधेश कुमार | Published: January 4, 2021 12:23 PM2021-01-04T12:23:30+5:302021-01-04T12:26:28+5:30
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्नी पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने वहां की राजनीति को पटरी पर लाने के लिए भारत से मदद की अपील की है.
लंबे समय बाद नेपाल में भारत के लिए ऐसी अनुकूल स्थिति पैदा हो रही है जिसकी हर भारतवासी को प्रतीक्षा रही होगी. माओवादी विचारधारा के मान्य प्रतिनिधि और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्नी पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने वहां की राजनीति को पटरी पर लाने के लिए भारत से मदद की अपील की है.
यही नहीं, चीन को नकारते हुए वे प्रधानमंत्नी के. पी. शर्मा ओली से समझौता करने की जगह सड़काें पर आंदोलन कर रहे हैं. जिन्हें प्रचंड की पृष्ठभूमि पता है तथा प्रधानमंत्नी रहते हुए भारत के संदर्भ में उनकी नीतियां जरा भी याद हों, वे मानेंगे कि यह सामान्य घटना नहीं है. दूसरी ओर पूरे नेपाल में लगातार संवैधानिक राजशाही एवं हिंदू राष्ट्र के लिए भी सड़कों पर आंदोलन हो रहा है.
इन आंदोलनों का स्वर भी चीन विरोध एवं भारत के समर्थन का है. यह बताने की आवश्यकता नहीं कि दोनों घटनाएं चीन की पेशानी पर बल पैदा करने वाली हैं. एक समय ऐसा लग रहा था कि नेपाल में भारत चीन से पिछड़ गया है तथा वहां अब वही होगा जो चीन चाहेगा. सच कहा जाए तो ओली ने नेपाल के अंदर खुली भूमिका के लिए चीन को छूट दे दी थी. लेकिन समय का चक्र नया करवट लेने लगा है. प्रश्न है कि इस समय भारत सरकार और आम भारतीयों की नेपाल के प्रति क्या भूमिका होनी चाहिए?
यह सच है कि नेपाल के ऐसे नेताओं की लंबी श्रृंखला है जिन्होंने संकट के समय में भारत से मदद ली तथा संकट हटने के बाद ज्यादातर ने भारत विरोध में अपनी ताकत लगा दी. 2005 के बाद से उभरे नेताओं ने एक मुहावरा गढ़ा कि हम भारत एवं चीन दोनों के साथ समानता का संतुलन बनाकर चलेंगे. इसी चरित्न और व्यवहार से नेपाल में चीन को अपनी कुत्सित नीतियों का खेल खेलने का खुला अवसर मिल गया.
भारत से भी कई बार चूक हुई. चाहे वह पंचायती व्यवस्था की स्थापना का समय हो या राजा वीर विक्रम वीरेंद्र की सपरिवार हत्या का मामला या राजशाही के अंत एवं प्रजातंत्न लाने के नाम पर चलने वाला हिंसक माओवादी युद्ध आदि. भारत सार्वजनिक रूप से सामने न आने की अपनी हिचक भरी कूटनीति की गिरफ्त में फंसा रह गया.
भारत के राजनीतिक - गैरराजनीतिक एक्टिविस्टों के एक समूह का पूरा साथ माओवादी नेताओं को मिला जो घोषित रूप से भूमिगत थे लेकिन भारत में रहते हुए नेपाल में आराम से गतिविधियां संचालित करते रहे. इस बार फिर भारत के पास बहुप्रतीक्षित अवसर अपने-आप चलकर आया है.
नेपाल में किस तरह का संविधान-शासन चाहिए, यह नेपाल के लोगों को ही तय करना है. किंतु भारत से अगर वहां के लोग सहयोग चाहते हैं तो उसे नकार देना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा. भारत को अपनी भूमिका तय करते समय पिछले करीब दो दशक में हुए राजनीतिक परिवर्तनों-प्रगतियों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा करनी होगी.
हमारे लिए जो अनुकूल परिस्थितियां बनी हैं, उनके पीछे वहां की आंतरिक परिस्थितियों के साथ भारत की संयमित कूटनीति और नेपालियों के प्रति उदार नीतियों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है. नेपालियों के बड़े वर्ग, जिनमें वहां के नेता भी शामिल हैं, को महसूस हुआ है कि हमारा सच्चा हितैषी भारत ही है जो अनादर किए जाने के बावजूद भाई जैसा आचरण करता है.
आखिर रक्त संबंधों की जितनी हमारी गहराई है चीन उसमें कहीं आता ही नहीं. लोगों ने चीन के व्यवहार से भारत की तुलना की है जो वहां सुपर सरकार की भूमिका में आ गया है. चीनी राजदूत जिस तरह बिना किसी प्रोटोकॉल का पालन किए राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्नी, मंत्नी, सेना प्रमुख आदि के यहां जाती-आती हैं, चीनी अधिकारी वहां धौंस जमाते हैं, उनसे वहां की सत्ता और विपक्ष ही नहीं, सक्रिय नागरिक भी डरने लगे हैं.
जिस प्रचंड ने चीन की मध्यस्थता में ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) के साथ अपनी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) का विलय कर एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी बना लिया, उन्होंने चीन को आंतरिक राजनीति से दूर रहने की सलाह दी है. एक ओर भारत से मदद की अपील तथा दूसरी ओर चीन को दूर रहने की चेतावनी का अर्थ किसी को समझाने की आवश्यकता नहीं. इसका महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि किसी भी नेता या संगठन ने भारत से सहयोग मांगने के बयान का विरोध नहीं किया.