प्रमोद भार्गव का ब्लॉगः चिकित्सा के क्षेत्र में सुधार की बड़ी पहल
By प्रमोद भार्गव | Published: August 31, 2019 06:27 AM2019-08-31T06:27:51+5:302019-08-31T06:27:51+5:30
कश्मीर में जहां धारा-370 हटाए जाने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार अधिकतम युवाओं को रोजगार से जोड़कर तनावमुक्त वातावरण बनाना चाहती है, वहीं पूर्वोत्तर में मेडिकल कॉलेज खोलकर अपनी पार्टी का जनाधार मजबूत कर कांग्रेस और वामपंथी दलों को किनारे लगाने की मंशा पाले हुए है.
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने देश में 75 नए चिकित्सा महाविद्यालय खोलने का अहम निर्णय लिया है. 24 हजार करोड़ रुपए खर्च करके 2022 तक ये महाविद्यालय खोल दिए जाएंगे. ये कॉलेज ऐसे इलाकों में खोले जाएंगे, जहां पहले से मेडिकल कॉलेज नहीं हैं. साफ है कि पूर्वोत्तर भारत और जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में ज्यादातर कॉलेज खोले जाएंगे.
कश्मीर में जहां धारा-370 हटाए जाने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार अधिकतम युवाओं को रोजगार से जोड़कर तनावमुक्त वातावरण बनाना चाहती है, वहीं पूर्वोत्तर में मेडिकल कॉलेज खोलकर अपनी पार्टी का जनाधार मजबूत कर कांग्रेस और वामपंथी दलों को किनारे लगाने की मंशा पाले हुए है.
पश्चिम बंगाल और केरल में भी कुछ कॉलेज खोले जा सकते हैं, जिससे चिकित्सा में सुधार के बहाने बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और केरल में वामपंथियों को चुनौती दी जा सके. इसके पहले सरकार 82 मेडिकल कॉलेज पिछले पांच वर्षो में खोल चुकी है. आगामी तीन वर्षो में 75 कॉलेज और खुल जाते हैं तो नए कॉलेजों की संख्या बढ़कर 157 हो जाएगी. पिछले पांच सालों में ही चिकित्सा स्नातक और स्नातकोत्तर की 45000 सीटें बढ़ाई गई हैं. 75 कॉलेजों में 15,700 नई सीटों का प्रावधान है. किंतु चिकित्सा शिक्षा नए शोध, पीजी में छात्रों की कमी और गुणवत्ता के जिस अभाव से जूझ रही है, उस पर भी ध्यान देना होगा.
देश में प्रत्येक वर्ष करीब पचास हजार चिकित्सक चिकित्सा महाविद्यालयों से डिग्री लेकर निकलते हैं. वैश्विक स्तर पर भारतीय चिकित्सकों की उम्दा साख है. दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली भी भारत में है. फिलहाल एमबीबीएस में कुल 67,218 सीटें हैं, जो 82 कॉलेज खुलने के बाद बढ़कर 80,000 हो गई हैं.
अब 75 मेडिकल कॉलेजों की जो घोषणा की गई है, उसमें 15,700 नई सीटों का प्रावधान है. अर्थात अब कुल सीटें बढ़कर 95,700 हो जाएंगी. इसलिए अब उम्मीद की जा सकती है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का जो 1000 की आबादी पर एक डॉक्टर की मौजदूगी अनिवार्य होने का मानक है, वह लक्ष्य आने वाले कुछ समय में पूरा हो जाएगा. फिलहाल हमारे यहां यह अनुपात 0.62/1000 है. 2015 में राज्यसभा को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने बताया था कि 14 लाख एलोपैथी चिकित्सकों की कमी है. किंतु अब यह कमी 20 लाख हो गई है. इसी तरह 40 लाख नर्सो की कमी है. निकट भविष्य में इन कमियों के पूरी होने की उम्मीद बढ़ गई है.
बावजूद विडंबना है कि इन कॉलेजों में नए शोध नहीं हो रहे हैं. स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों की सीटें भी बड़ी संख्या में हर साल खाली रह जाती हैं. इन कमियों का खुलासा चिकित्सकों की महत्वपूर्ण संस्था एसोसिएशन ऑफ डिप्लोमेट नेशनल बोर्ड ने किया है. देश के कुल 576 चिकित्सा संस्थानों में से 332 ने एक भी शोध-पत्र प्रकाशित नहीं किया है. नए शोध अनुसंधान, नवाचार एवं अध्ययन व प्रशिक्षण के आधार होते हैं. यदि आधे से ज्यादा कॉलेजों में अनुसंधान नहीं हो रहे हैं, तो इन कॉलेजों से पढ़कर निकलने वाले चिकित्सकों की योग्यता व क्षमता विश्वसनीय कैसे रह जाएगी?
दरअसल हरेक स्नातकोत्तर छात्र को अंतिम परीक्षा के लिए मौलिक विषय व अनुसंधान से जुड़ा एक शोध-पत्र लिखना होता है. इसे थीसिस कहते हैं. यदि थीसिस नहीं लिखाई जा रही है, तो उन शिक्षकों की योग्यता पर भी सवाल उठता है, जो थीसिस का विषय सुझाने के साथ मार्गदर्शक भी होते हैं. तब क्या यह मान लिया जाए कि मोटा वेतन लेने वाले चिकित्सा शिक्षक भी नवीन अध्ययन, चिंतन व मनन की परंपरा से किनारा करते जा रहे हैं? वैसे भी चिकित्सा शिक्षा से लेकर अन्य विषयों के ज्यादातर शोधों में गंभीरता दिखाई नहीं दे रही है. इसके पीछे शिक्षक का निरंतर अध्ययनरत नहीं रहना एक बड़ा कारण है.
अब तक सरकारी चिकित्सा संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन ध्यान रहे कि लगभग 60 प्रतिशत मेडिकल कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं. ये संस्थान छात्रों से भारी-भरकम शुल्क तो वसूलते ही हैं, कैपिटेशन फीस लेकर प्रबंधन के कोटे में छात्रों की सीधी भर्ती भी करते हैं. ऐसे में छात्रों को शोध का अवसर नहीं देना चिकित्सा शिक्षा और छात्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ है.
इधर दूसरी बड़ी खबर आई है कि चिकित्सकों को उपचार की विशेषज्ञता हासिल कराने वाले स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में कई सैकड़ा सीटें खाली रह गई हैं. यह स्थिति भी शोध-पत्र नहीं लिखे जाने की एक वजह है. चिकित्सा से इतर विषयों के डिग्रीधारियों के लिए नौकरियों में कमी की बात तो समझ में आती है, कोई एमबीबीएस बेरोजगार हो, यह जानकारी नहीं मिलती. फिर क्या पीजी पाठ्यक्रमों में पदों का रिक्त रह जाना, निपुण छात्रों का टोटा है, या फिर छात्र स्वयं गंभीर पाठ्यक्रमों से दूर भाग रहे हैं? कारण जो भी हो, इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए.