एनके सिंह का ब्लॉगः राम मंदिर, चुनाव और भाजपा का अंतर्द्वद्व

By एनके सिंह | Published: December 29, 2018 09:22 AM2018-12-29T09:22:17+5:302018-12-29T09:22:17+5:30

कम से कम भाजपा या प्रधानमंत्नी यह तो कह सकेंगे कि हम तो मंदिर बनाना चाहते थे लेकिन कोर्ट को कौन समझाए? 

N. K. Singh's Blog: Ram Temple, Election and BJP's Intermediate | एनके सिंह का ब्लॉगः राम मंदिर, चुनाव और भाजपा का अंतर्द्वद्व

एनके सिंह का ब्लॉगः राम मंदिर, चुनाव और भाजपा का अंतर्द्वद्व

‘प्रधानमंत्नी मोदी, राम मंदिर के लिए कानून बनाओ’ यह दबाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी डाल रहा है, आनुषंगिक संगठन भी और यहां तक कि भाजपा के सांसद भी. प्रयाग में संगम के तट पर केंद्रीय गृह मंत्नी राजनाथ सिंह को बोलने से रोक कर श्रद्धालुओं ने आवाज बुलंद की -‘मंदिर नहीं तो वोट नहीं’. फिर दिक्कत क्या है मोदी सरकार को कानून बनाने में? इस 2.77 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की वैधानिकता पर तो 1994 में ही सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय पीठ ने मोहर लगा दी थी और अब तो मात्न कानून बना कर उसे मंदिर निर्माताओं को सौंप देना है. फिर देरी क्यों? अगर राज्यसभा में बहुमत की दिक्कत है तो इस कानून को दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में पारित कराया जा सकता है. अगर संसद का सत्न नहीं चल रहा है तो सरकार के पास और भी अल्पकालिक रास्ता है - अध्यादेश का. फिर आखिर मोदी सरकार क्यों चुप बैठी है? 

इसका कारण है. और इसकी झलक हाल में ही दादाचंद मेमोरियल लेक्चर में भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल के उद्बोधन में मिलती है, देश के कानून मंत्नी रविशंकर प्रसाद के बयान में मिलती है और अचानक पिछले हफ्ते से भाजपा प्रवक्ताओं और मंत्रियों ही नहीं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा सुप्रीम कोर्ट से  इस केस की लगातार प्रतिदिन सुनवाई करने की मांग में मिलती है. सुप्रीम कोर्ट में आगामी चार जनवरी को राम मंदिर-बाबरी मस्जिद जमीन के स्वामित्व के केस की सुनवाई होनी है. वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट की 5-सदस्यीय बेंच द्वारा हाल ही में सबरीमला मामले में दिए गए फैसले में उभरे ‘संवैधानिक नैतिकता’ के सिद्धांत को लेकर जबर्दस्त भर्त्सना की और शंका व्यक्त की कि ‘हो सकता है आने वाले कानूनों की वैधानिकता पर इसी सिद्धांत का प्रयोग यह अदालत करे. यहां तक कि केशवानंद भारती केस में दिए गए और अंतर्राष्ट्रीय रूप से प्रशंसित ‘आधारभूत संरचना’ के सिद्धांत की भी निंदा की और कहा कि इस सिद्धांत से और ताजा ‘संवैधानिक नैतिकता’ के तर्क से सुप्रीम कोर्ट अपने को संविधान से भी ऊपर रखना चाहता है. उधर कानून मंत्नी का कहना है कि ‘‘हम सुप्रीम कोर्ट पर दबाव डालेंगे कि वह जल्दी फैसला दे. 70 साल से यह मामला लटका है और सुप्रीम कोर्ट में भी अब अपील के दस साल हो चुके हैं.’’ 
 
अटॉर्नी जनरल से किसी ने नहीं पूछा कि अचानक 55 साल पुराने 13 सदस्यीय पीठ के विश्व-ख्याति प्राप्त ‘आधारभूत संरचना’ के सिद्धांत पर आज यह हमला क्यों? दरअसल वेणुगोपाल को भी मालूम है कि संसद इस मुद्दे पर पहले तो कानून नहीं बना सकती और अगर संख्या बल और हिंदुओं की भावना के नाम पर अन्य दलों के स्पष्ट तौर पर खिलाफ न होने के कारण बनाया भी तो इसी सिद्धांत - आधारभूत संरचना से छेड़छाड़ की शक्ति संसद में निहित नहीं - के कारण वह अगले क्षण अदालत  द्वारा असंवैधानिक ठहराया जाएगा. अटॉर्नी जनरल यह भी जानते हैं कि चूंकि यह मामला जमीन की मिल्कियत को लेकर है लिहाजा जो कागज पर होगा उसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट फैसला देगा और उस समय यह कोर्ट हाल में घोषित ‘संवैधानिक नैतिकता’ के सिद्धांत को अमल में लाएगा. लिहाजा पहले से ही इन दोनों मूल सिद्धांतों को गलत बता कर यह आरोप लगाया जा सकता है कि देश की सबसे बड़ी पंचायत अपने को संविधान से भी ऊपर मानती है. इस आरोप का इस्तेमाल भाजपा चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से कर सकती है. 

इसी तरह कानून मंत्नी का यह कहना कि सुप्रीम कोर्ट दस साल से फैसला नहीं कर रहा है अब इसे तत्काल प्रतिदिन सुनवाई कर फैसला देना होगा, भी उसी चुनावी रणनीति का हिस्सा है. किसी ने कानून मंत्नी से नहीं पूछा कि दस साल में साढ़े चार साल आपने यह मांग अदालत में क्यों नहीं उठाई, अपने ‘56 महीनों’ के शासन काल में कानून क्यों नहीं बनाया. अब अचानक क्यों प्रतिदिन सुनवाई चाहते हैं. 

दरअसल तीन राज्यों की हार से और उससे उत्साहित विपक्ष के एक साथ आने से भाजपा सशंकित हो गई है. चुनाव के मात्न चार माह बचे हैं. अब वह समय निकल चुका है कि वादों पर जनता भरोसा करे. किसान और दलितों की नाराजगी आंकड़ों में दिखाई देने लगी है. लिहाजा जहां एक ओर जनमत को काम से प्रभावित करने के प्रयास जारी रखने की कोशिश होगी वहीं भावना को कुरेदने और सन् 1992 जैसा जनोन्माद बनाने का एक समानांतर प्रयास और तेज करने की रणनीति अपनाई गई है. यही वजह है कि एक ओर सुप्रीम कोर्ट पर जल्द फैसला देने का दबाव बनाया जाएगा और अगर सुप्रीम कोर्ट इस दबाव में नहीं आया यानी ऐन चुनाव के दौरान फैसला नहीं दिया तो दूसरी रणनीति यह होगी कि ठीक चुनाव के कुछ दिन पहले अध्यादेश लाया जाएगा, यह जानते हुए भी कि अदालत में ऐसा अध्यादेश (या कानून) एक क्षण भी नहीं टिक सकता. जाहिर है कम से कम भाजपा या प्रधानमंत्नी यह तो कह सकेंगे कि हम तो मंदिर बनाना चाहते थे लेकिन कोर्ट को कौन समझाए? 

Web Title: N. K. Singh's Blog: Ram Temple, Election and BJP's Intermediate

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