एन. के. सिंह का ब्लॉगः सत्ता के शिखर से सत्य समझना क्यों है मुश्किल!
By एनके सिंह | Published: January 6, 2019 02:04 PM2019-01-06T14:04:01+5:302019-01-06T14:04:01+5:30
बिहार के भोजपुर जिले के सदर अस्पताल में ही प्रधानमंत्नी आयुष योजना का कार्यालय खुला. इस योजना में अपना और अपने परिवार का पंजीकरण कराने हजारों की संख्या में लोग अल-सुबह से ही लाइन लगा कर ऑफिस पहुंचे. तीन दिन तक दफ्तर खुला ही नहीं.
देश के चूहे बेहद अनैतिक और भ्रष्ट हो गए हैं. सरकारी अनाज गोदाम में जब-जब गेहूं बोरे से गायब होता है तो अफसर रिपोर्ट देते हैं कि चूहे खा गए हैं! बिहार में शराबबंदी के कारण जब ट्रकों से शराब के पाउच जब्त कर थानों में रखे जाते हैं तो अचानक पता चलता है पाउच खुले हैं और शराब गायब. पुलिसवालों की ‘तहकीकात’ में पता चला कि फिर वही चूहे! शराबबंदी के बाद से बिहार के चूहे कुछ ज्यादा ही शराबी हो गए हैं. भारत सरकार ने चुनाव के कुछ महीने पहले आयुष्मान योजना दी है जिसके तहत 10.60 करोड़ गरीब परिवारों को पांच लाख रुपए के (बीमे के तहत) खर्च तक मुफ्त इलाज किया जाएगा. लेकिन फिर देखिए, चूहों के चरित्न में विरोधाभास. जहां चूहे बिहार सरकार के कदम से कदम मिलाकर स्वयं शंकर भगवान के जहर पीकर दुनिया को बचाने की भांति स्वयं शराब पीकर जनता को शराब पीने से बचाते हैं वहीं मुफ्त स्वास्थ्य की प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना का लाभ उन गरीबों तक नहीं पहुंचने देते.
हुआ यूं कि बिहार के भोजपुर जिले के सदर अस्पताल में ही प्रधानमंत्नी आयुष योजना का कार्यालय खुला. इस योजना में अपना और अपने परिवार का पंजीकरण कराने हजारों की संख्या में लोग अल-सुबह से ही लाइन लगा कर ऑफिस पहुंचे. तीन दिन तक दफ्तर खुला ही नहीं. जब चौथे दिन 12 बजे के बाद सरकारी कर्मचारी दफ्तर पहुंचे तो लोगों की भीड़ को जवाब मिला ‘चूहे तार काट गए हैं, कम्प्यूटर काम नहीं कर रहा है. बनवाने के लिए खबर ऊपर भेज दी गई है.’ फिर वही चूहा! जाहिर है भारत का संविधान शुरुआत में ही ‘हम भारत के लोग’ कहता है. लिहाजा चूहा संविधान से बंधा नहीं है और इनको गिरफ्तार कर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.
सत्ता के ऊंचे भव्य प्रासाद से नीचे स्पष्ट दिखाई नहीं देता. अगर देखना भी चाहते हैं तो रंगीन अफसरशाही चश्मे से सब कुछ हरा नजर आता है. कई बार आदमी चूहा नजर आता है और चूहा आदमी. अधिकारी केवल वही आंकड़े दिखाते हैं जो मंत्रियों को सावन की हरियाली की तरह नजर आए. तभी तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्नी ने अभी दो दिन पहले अपनी सरकार की तारीफ में एक बयान में कहा ‘जब से मैं आया हूं (लगभग दो साल पहले) तब से एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ. वह यह भूल गए कि पिछले सत्न में ही भारत के गृह मंत्नी राजनाथ सिंह ने लोकसभा में बताया कि उत्तर प्रदेश में वर्तमान सरकार के शासन काल में 195 सांप्रदायिक दंगे हुए. बजरंगबली की जाति बताने वाले इस गेरुआधारी मुख्यमंत्नी का अनुभव नया है लिहाजा सहज ही इन्हें चूहों के गेहूं की बोरी फाड़कर अनाज चट करने और पाउच कुतर कर शराब पीने पर विश्वास हो जाता है.
वरना प्रदेश में कानून-व्यवस्था पर अपनी पीठ थपथपाने के पहले ‘गौ-रक्षक भीड़’ द्वारा थानेदार को बुलंदशहर में गोली मार देने और प्रधानमंत्नी के संबोधन के दौरान आरक्षण के लिए प्रदर्शन कर रहे लोगों द्वारा हेड कांस्टेबल को गाजीपुर में पीट-पीट कर मार देने, मेरठ जेल में कुख्यात डॉन मुन्ना बजरंगी को उतने ही खूंखार कैदी सुनील राठी द्वारा मेरठ जेल में ही गोली मार देने और पूर्व सांसद और अपराधी अतीक अहमद द्वारा देवरिया जेल से ही व्यापारी को फोन पर धमकाने को देख लेना चाहिए था. देश के सबसे बड़े सूबे के संन्यासी मुखिया को यह भी नहीं मालूम कैसे उनके तीन मंत्रियों के निजी सचिव कैमरे पर ‘ट्रांसफर कराने और ठेके दिलवाने के लिए’ पैसे मांगते पकड़े गए. तीनों मंत्रियों ने फिर वही सरकारी गोदाम और पुलिस वालों की तरह ‘चूहा बचाव’ का भाव लिया और ऐलान किया कि ‘‘हमसे क्या मतलब? अगर हमारा कोई निजी सचिव गलत है तो कानून उनके खिलाफ कार्रवाई करेगा.’’
जिस दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्नी आदित्यनाथ एक जनसभा में प्रदेश के विकास के कसीदे काढ़ रहे थे और बिहार के ‘सुशासन बाबू’ (मुख्यमंत्नी) नीतीश कुमार एक उद्घाटन समारोह में बिहार को बदलने के दावे कर रहे थे उसी दिन नीति आयोग ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव और गरीब-अमीर के बीच बढ़ती खाई (यूपी) और शिक्षा की खराब होती गुणवत्ता और लैंगिक -असमानता (बिहार) के पैमानों पर ये दोनों राज्य क्रमश: सबसे नीचे पाए गए. जब चूहे थानों के मालखाने से शराब पी जाते हों, प्रधानमंत्नी के फ्लैगशिप कार्यक्रम आयुष्मान की शुरुआत में ही कम्प्यूटर के तार काट जाते हों और जब मुख्यमंत्नी थानेदार की हत्या करने वाली भीड़ को पकड़ने की जगह ‘गौ को मारा किसने’ यह अपनी प्राथमिकता बना लें तो तीन महीने बाद चुनाव में जनता का भाव क्या होगा यह भले ही सत्ता की ऊंची इमारतों से न दिखाई दे रहा हो लेकिन सड़क पर चलने वालों को साफ नजर आने लगता है. मोदीजी शायद यह भूल गए कि आरोग्य योजना के लिए जो कार्यक्षमता और निष्ठा वाले अधिकारी-कर्मचारी चाहिए वे इन मुख्यमंत्नी की सोच में भी नहीं हैं क्योंकि इन्हें तो हकीकत भी ‘चूहे’ बता रहे हैं.