हरदिल अजीज भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्नी स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर इस बार भी विगत गुरुवार को मोदी सरकार ने ‘गुड गवर्नेस डे’ मनाया. राज्य के चुनाव में लगातार हो रही हार क्या इस ‘गुड गवर्नेस’ की तस्दीक है? क्या कोई संदेश पिछले हफ्ते झारखंड विधानसभा चुनाव में हुई हार देती है.
सीएसडीएस के एक अध्ययन के अनुसार प्रदेश की जनता में केंद्र की भाजपा सरकार से नाराजगी थी और राज्य की भाजपा सरकार से भी. लेकिन यह भी निष्कर्ष में पाया गया कि पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं का प्रभाव भी वोटरों पर कम हो रहा है. यह स्थिति 2019 के आम चुनाव से अलग है. लोगों की सोच भाजपा सरकार के प्रति अब बदल रही है.
राज्य के स्तर पर उदासीनता का एक उदाहरण देखें. पिछले 5 जून को राज्य के लातेहार जिले के लुर्गुमी गांव का 65 वर्षीय आदिवासी रामचंद्र मुंडा समुचित भोजन के अभाव में मर गया. कोई 20 दिन बाद मोदी-2 की सरकार में खाद्य मंत्नी रामविलास पासवान ने नई संसद के पहले सत्न में ही ऐलान किया ‘भूख से कोई मौत नहीं’.
उधर अमेरिका-स्थित एक मकबूल संस्था की सर्वमान्य ताजा रिपोर्ट ने विश्व भूख सूचकांक में भारत को पिछले एक साल में नौ श्रेणी और नीचे करते हुए 102 पर रखा है जबकि बांग्लादेश 22 अंकों की छलांग लगा कर 66वें स्थान पर और पाकिस्तान भी 13 अंकों की उछाल के साथ 93 वें स्थान पर पहुंचा है.
चुनाव में हारने के बाद भाजपा के शीर्ष नेताओं ने फिर एक बार शुतुरमुर्गी भाव दिखाते हुए ‘सहयोगी दलों का अलग होना महंगा पड़ा’ कह कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की. ये सहयोगी क्यों अलग हुए, इस प्रश्न पर गौर करने की जरूरत है. अभी कुछ माह पहले तक लोकसभा चुनाव में जिस झारखंड की जनता ने भाजपा को दिल खोल कर वोट देकर 14 में से 12 सीटें जिताईं, उसी ने विधानसभा चुनाव में सत्ता किसी और गठबंधन को सौंप दी.
पहले उत्तर भारत के तीन राज्यों -छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान, फिर महाराष्ट्र और हरियाणा (भले ही जोड़-तोड़ कर सरकार बना ली हो) में इस दल और उसके नेताओं के प्रति नाराजगी का भाव दिखा. जो पार्टी देश की 71 प्रतिशत आबादी पर अपनी राज्य सरकारों के जरिये शासन करती थी, आज लगभग 42 प्रतिशत पर ही सिमट गई है.
सर्जिकल स्ट्राइक अगर आम चुनाव के पहले हुआ था तो तीन तलाक, कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना और राम मंदिर का फैसला तो बाद की घटनाएं हैं और ये सभी मूल रूप से हिंदुओं के दिल के नजदीक और मुसलमानों को नाराज करने वाली हैं. फिर झारखंड चुनाव के दौरान ही तो मुसलमानों को छोड़कर हिंदुओं और पांच अन्य धर्मो के शरणार्थियों के लिए कानून बना जिससे देश आज अशांत है. केंद्र सरकार के इन फैसलों में तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सारे तत्व विद्यमान हैं फिर क्यों राज्यों में भाजपा लगातार मुंह की खा रही है.
देश की जनता में भावना का अतिरेक है लेकिन भोगा हुआ यथार्थ कुछ समय बाद उसकी भावना पर भारी पड़ने लगता है. महाराष्ट्र में हुई बेइज्जती या पार्टी के विधायक का बलात्कार में जेल जाना जाने-अनजाने भाजपा की मकबूलियत पर प्रश्नचिह्न् लगाता है. 15 लाख हर गरीब की जेब में जाना अगर लोग भूल भी जाएं तो क्या हुआ किसानों की आय सन 2022 तक दूनी करने के वादे का या क्या हुआ कम होते रोजगार और बढ़ती महंगाई पर लगाम का? जरूरी कौन था, ये सब या देश भर में एनआरसी करना?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रमों में वह क्षमता है कि अगर वे वास्तविक उत्साह के साथ अमल में आएं तो तस्वीर बदलेगी लेकिन इसके लिए मोदी को कम से कम अपनी राज्य सरकारों को हिदायत देनी होगी. अब वादों को अंजाम देने की, न कि एनसीआर पर अमल की जरूरत है. जनता भावना और भोगे हुए यथार्थ में फर्ककरने लगी है.