मुक्ति से आसक्ति तक
By Amitabh Shrivastava | Updated: September 17, 2025 07:26 IST2025-09-17T07:26:04+5:302025-09-17T07:26:42+5:30
हैदराबाद रियासत से मुक्ति के दिवस पर निजाम के आदेशों के प्रति बढ़ती आसक्ति कुछ यही संदेश प्रदान करती है.

मुक्ति से आसक्ति तक
मराठवाड़ा की अनेक मिटती यादों के बीच बुधवार, 17 सितंबर 2025 को हैदराबाद रियासत से मुक्ति पाने के 77 वर्ष पूर्ण हो जाएंगे. अब इस भूभाग में तीन जिले अतिरिक्त हैं और परिसर की राजधानी माने जाने वाले औरंगाबाद तथा उस्मानाबाद का नाम बदल चुका है. निजामशाही शासन के मुख्य प्यादे रजाकारों से त्रस्त जनता का अलग होने का फैसला केवल भारत को मिली स्वाधीनता के बाद जुड़ना नहीं था, बल्कि क्षेत्र की संस्कृति और समस्याओं को समझकर प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना था.
किंतु स्वतंत्रता के लगभग आठ दशक पूरे होने के अवसर पर परिक्षेत्र के विकास पर सवाल जहां अपनी जगह खड़े हैं, वहीं दूसरी ओर समाज में बढ़ता आर्थिक असंतुलन जातिगत संघर्ष को हवा दे रहा है. हालांकि आजादी के आंदोलन से लेकर हैदराबाद मुक्ति संग्राम के आखिरी 13 माह तक रियासत की नीतियों, अत्याचारों और असमानता को लेकर संघर्ष हुआ.
मगर जब जाति संबंधी अधिकारों की जागरूकता बढ़ी है, तब उसी रियासत के राजपत्रों का सहारा लिया जा रहा है, जिन्हें बनाने वालों के खिलाफ आंदोलन चलाकर लड़ाई जीती गई थी.
महाराष्ट्र में पिछले दिनों राज्य सरकार ने मराठा समाज को आरक्षण प्रदान करने के लिए एक आदेश निकाला, जो हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान की ओर से वर्ष 1918 में जारी किए गए गजट को आधार बनाकर प्रकाशित किया.
मराठा आरक्षण की मांग के लिए इसी गजट को आधार बनाया गया है, क्योंकि इससे मराठों को कुनबी का दर्जा मिलने और अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) की तरह आरक्षण मिलेगा. इसके बाद राज्य के बंजारा समाज ने भी हैदराबाद के गजट को आधार बनाकर अनुसूचित जनजाति (एसटी) में शामिल करने की मांग शुरू कर दी है. उनका कहना है कि यदि हैदराबाद रियासत के दस्तावेज को आधार बनाकर आरक्षण दिया जा रहा है, तो उन्हें भी उसी आधार पर आरक्षण मिलना चाहिए. इनके बीच ‘ओबीसी’ भी हैं, जो इस प्रकार आरक्षण देने का विरोध कर रहे हैं.
अब सवाल यह है कि हैदराबाद रियासत के अध्यादेश, दस्तावेज और कानून इतने अच्छे थे तो फिर आंदोलन का कोई कारण ही नहीं बनता था. मराठा आरक्षण के संबंध में राजपत्र जारी होने के बाद अनेक स्थानों पर हैदराबाद के निजाम को याद किया गया. निश्चित ही यह विरोधाभास विचार योग्य है. एक तरफ जहां शहरों-कस्बों के नाम बदले जा रहे हैं, क्योंकि वे मुस्लिम शासकों की निशानी हैं. दूसरी ओर उन्हीं के दस्तावेजों को आधार बनाकर सरकारी आदेश जारी किए जा रहे हैं.
सर्वविदित है कि हैदराबाद मुक्ति संग्राम पूर्ण स्वतंत्रता के साथ एक नई व्यवस्था और कानून बनाकर प्रगति करने की सोच विकसित करने पर आधारित था. जिसके लिए अनेक लोगों ने अपने जीवन का बलिदान तक किया. किंतु 77 साल बाद हैदराबाद के दस्तावेजों को आधार बनाना समूचे आंदोलन की सोच के विपरीत है. स्वतंत्रता का अमृत वर्ष मना चुके देश में पिछड़ापन अभी-भी खत्म नहीं हुआ है.
सामाजिक और आर्थिक असंतुलन देश के सभी भागों में दिखता है, जिसको दूर करने के लिए आरक्षण के अलावा कोई आधार नहीं दिखाई देता. जब देश में अंग्रेजों का बनाया कानून बदल चुका हो, देश की अपनी नई संसद बन चुकी हो, तो ऐसे में पुरातन नियम-आदेशों का आधार परिस्थिति के अनुसार तर्कसंगत हो सकता है, लेकिन उसके विकल्पों पर भी विचार किया जाना चाहिए.
इससे कहीं न कहीं यह भी संदेश जाता है कि स्वतंत्रता पूर्व व्यवस्था में भारतीयों को गुलाम बनाने वाले कुछ मामलों में सही थे. फिर हमारे पूर्वजों के विरोध का कारण क्या था? हैदराबाद मुक्ति संग्राम हर प्रकार के अन्याय, अव्यवस्था और अत्याचार के खिलाफ लड़ा गया. यदि उन्होंने कुछ कदम समाज हित में उठाए तो वे कालांतर में लाभकारी ही साबित हुए.
यद्यपि उनके शासन-प्रशासन में कुछ अच्छाइयां थीं और उन्हें अपनाकर राज्य को बेहतर बनाया जा सकता है तो उन्हें अपनाने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए. जन आंदोलन के बाद उन्हें स्वीकार करना प्रशासनिक दूरदर्शिता में अभाव का परिणाम ही है. हैदराबाद रियासत से मुक्ति के दिवस पर निजाम के आदेशों के प्रति बढ़ती आसक्ति कुछ यही संदेश प्रदान करती है. जिसे राजनीति से परे समझने का प्रयास करने की आवश्यकता है.