ब्लॉग: अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस के कायाकल्प की राह में कई मुश्किलें

By राजेश बादल | Published: September 2, 2022 12:23 PM2022-09-02T12:23:41+5:302022-09-02T12:23:41+5:30

यह कोई पहली बार नहीं है,जब कांग्रेस छोड़ने वालों की कतार लगी है. अतीत इस बात का सबूत देता है. पिछले 75 साल में इस पार्टी ने 60 से अधिक छोटे-बड़े विभाजन भी देखे हैं.

Many difficulties in the way of rejuvenation of Congress fighting for existence | ब्लॉग: अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस के कायाकल्प की राह में कई मुश्किलें

कांग्रेस के कायाकल्प की राह में मुश्किलें

हिंदुस्तान के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस में इन दिनों खलबली है. आंतरिक और बाहरी मोर्चों पर जूझ रही यह पार्टी एक तरह से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. जिस पार्टी ने भारत की आजादी के आंदोलन में अव्वल रहते हुए सारे संसार के सामने अहिंसा की एक मिसाल कायम की, वह पहली बार इतने दुर्बल और महीन आकार में इस देश के सियासी पटल पर प्रस्तुत है. 

नौबत यहां तक आ पहुंची है कि दशकों पुराने सदस्य और कार्यकर्ता पार्टी का झंडा छोड़ रहे हैं. क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि वे वाकई पार्टी की दशा - दिशा से निराश हैं? या फिर लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहने के कारण कांग्रेस उन्हें अपने निजी हितों के लिए फायदेमंद नहीं दिखाई दे रही है. इन कारणों की पड़ताल करना जरूरी है.

देखा जाए तो कांग्रेस से नेताओं का पलायन और कार्यकर्ताओं की नाराजगी कोई नई बात नहीं है. एक धड़कते हुए लोकतंत्र का तकाजा यही है कि प्रत्येक दल अपने भीतर असहमति के सुरों को पूरा सम्मान दे. उनके खफा होने के कारणों को पहचाने और यदि वे सही हैं तो उनका समाधान भी किया जाए. इसे कोई भी गलत नहीं ठहराएगा. हर राजनेता और कार्यकर्ता अपने को सच और उचित मानता है. इसे ध्यान में रखते हुए वह पार्टी से तो बहुत अपेक्षाएं करता है, लेकिन खुद अपनी ओर से कुछ देना नहीं चाहता.

यह कोई पहली बार नहीं है,जब कांग्रेस छोड़ने वालों की कतार लगी है. अतीत इस बात का सबूत देता है कि जब भी कांग्रेस नेतृत्व के स्तर पर नई पीढ़ी ने बदलते वक़्त के साथ कमान संभालनी चाही तो उसे आसानी से स्वीकार नहीं किया गया. जवाहरलाल नेहरू के जमाने से ही यह सिलसिला शुरू हो गया था. पिछले 75 साल में इस पार्टी ने 60 से अधिक छोटे-बड़े विभाजन देखे हैं. 

नेतृत्व के विरुद्ध मोरारजी देसाई से लेकर चरण सिंह, देवराज अर्स, बंगारप्पा, जी.के.मूपनार, चंद्रशेखर, हेमवती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम, अरुण नेहरू, विश्वनाथ प्रताप सिंह, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह और माधवराव सिंधिया तक ने अपनी अलग राह चुनी. मगर मूल पार्टी से अलग होकर बहुत लंबी और चमकीली पारी वे नहीं खेल सके. इंदिरा गांधी युग में तो दो बार पार्टी की पुनर्रचना हुई. राजीव गांधी के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ. अपनी महत्वाकांक्षा और स्वार्थों के आधार पर पार्टी छोड़ने वाले कुछ समय तो टिके, लेकिन बाद में किसी अंधी सुरंग में समा गए. 

सोनिया गांधी युग में जो लोग अलग हुए, वे अलबत्ता अब तक दांव खेल रहे हैं. उन्हें अपवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है. शरद पवार, ममता बनर्जी, जगन मोहन रेड्डी और केसीआर ही मौजूदा दौर में अपनी पार्टियों का वजूद बचा कर रखे हुए हैं. अधिकांश का कोई अता-पता नहीं है. इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नेतृत्व की कार्यशैली भी आज पार्टी के इस हाल के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती है. मगर यह भी देखना होगा कि बीते दिनों पार्टी नेतृत्व पर लगातार आक्रमण हो रहे थे तो अनेक प्रथम श्रेणी के नेताओं ने चुप्पी ओढ़ ली थी. 

अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और चंद अन्य वरिष्ठ कांग्रेस जन ही सक्रिय थे. जाहिर है कि छोड़कर जाने वाले पहले ही पार्टी से किनारा करने का निर्णय ले चुके थे. अनुकूल हालात में परीक्षा नहीं होती. प्रतिकूल परिस्थितियों में अगर पलायन का सिलसिला बढ़ जाए तो यही अर्थ निकलता है कि वैचारिक सोच और उसके लिए संघर्ष करने की प्रतिबद्धता उनके भीतर नहीं रही.

लेकिन हर बार विभाजन और पलायन के लिए जिम्मेदार कार्यकर्ताओं और नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षा ही नहीं होती. प्रतिद्वंद्वी पार्टियों का रवैया और उनका सत्ता मोह भी इसके पीछे होता है. वर्तमान कालखंड कुछ ऐसा ही है. जब सियासत से सिद्धांत और विचार गायब हो जाएं तो फिर समर्थक सिर गिने जाते हैं. एक दशक में हमने भारतीय जनता पार्टी समेत सभी क्षेत्रीय दलों की आंतरिक राजनीति बदलते हुए देखी है. अब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के युग से पार्टी एक नए आक्रामक अंदाज में उभर कर सामने आई है. 

भाजपा के इस रूप में किसी भी विचारधारा से कोई परहेज नहीं है. पिछले दशक में यही देखा गया है. देश के सामने कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए शायद यही रास्ता था. अन्य दलों में जो भी योग्य और अनुभवी राजनेता मिले, उन्हें अवसर दिया जाए और उनको अपनी पार्टी में शामिल किया जाए. भारतीय जनता पार्टी की इस रीति नीति का सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को ही उठाना पड़ा है. जो काम इस सदी के पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने कांग्रेस के साथ किया, उसे ही भाजपा ने आगे बढ़ाया. 

कांग्रेस के लगातार सत्ता में रहने के कारण जो शैली विकसित हुई थी, उसने सुविधाभोगी सियासत को जन्म दिया और कुर्सी की चाह में उसके कार्यकर्ता तथा नेता दल का त्याग करते गए. वैसे यह प्रवृत्ति लोकतंत्र का एक ऐसा चेहरा पेश करती है जो भारत के लिए बहुत उपयोगी नहीं कही जा सकती.

Web Title: Many difficulties in the way of rejuvenation of Congress fighting for existence

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