ब्लॉग: देश में राम राज लाने के प्रबल आकांक्षी थे महात्मा गांधी
By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: January 30, 2024 10:42 AM2024-01-30T10:42:40+5:302024-01-30T10:54:27+5:30
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देश में स्वराज के साथ राम राज के भी प्रबल आकांक्षी थे और इन दोनों के लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कुछ भी उठा नहीं रखा। इससे आगे की बात करें तो वे इन दोनों को अन्योन्याश्रित मानते थे और उनके मन-मस्तिष्क में इन दोनों की तस्वीरें बिल्कुल साफ थीं।
यह एक सुविदित तथ्य है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देश में स्वराज के साथ राम राज के भी प्रबल आकांक्षी थे और इन दोनों के लिए उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कुछ भी उठा नहीं रखा। इससे आगे की बात करें तो वे इन दोनों को अन्योन्याश्रित मानते थे और उनके मन-मस्तिष्क में इन दोनों की तस्वीरें बिल्कुल साफ थीं। अपनी बहुचर्चित कृति 'मेरे सपनों का भारत' में उन्होंने लिखा है कि भारत अपने मूल रूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं और इस कर्मभूमि को लेकर मेरा सबसे बड़ा स्वप्न है, राम राज की स्थापना।
लेकिन, संयोग कहें या दुर्योग कि जिस राम राज को लेकर वे इतने आग्रही थे, अपने समूचे जीवन में उसके प्रदाता भगवान राम की राजधानी कहें, जन्मभूमि या राज्य (अर्थात अयोध्या) वे सिर्फ दो बार जा पाए। इनमें 10 फरवरी, 1921 को हुई उनकी पहली अयोध्या यात्रा में दिए गए, इस संदेश की अभी भी कभी-कभार याद हो जाती है कि हिंसा कायरता का लक्षण है और तलवारें कमजोरों का हथियार।
यह भी कहा जाता है कि इस यात्रा में उन्होंने अयोध्या के साधुओं के बीच जाकर उनसे आजादी की लड़ाई लड़ने को कहा और विश्वास जताया था कि देश के सारे साधु, जो उन दिनों 56 लाख की संख्या में थे, बलिदान के लिए तैयार हो जाएं तो अपने तप तथा प्रार्थना से भारत को स्वतंत्र करा सकते हैं।
लेकिन, 1929 में हुई उनकी दूसरी अयोध्या यात्रा अभी तक सर्वथा अचर्चित रह गई है। दूसरी बार वे अपने ‘हरिजन फंड’ के लिए धन जुटाने के अभियान के सिलसिले में 'अपने राम की राजधानी' आए थे। बताते हैं कि इस धन-संग्रह के लिए तत्कालीन फैजाबाद शहर के मोतीबाग में उनकी सभा आयोजित हुई तो एक सज्जन ने उन्हें अपनी चांदी की अंगूठी प्रदान कर दी। लेकिन, वे हरिजन कल्याण के अपने मिशन में अंगूठी का भला कैसे और क्या उपयोग करते? वे सभा में ही उसकी नीलामी कराने लगे, ताकि उसके बदले में उन्हें धन प्राप्त हो जाए। नीलामी में ज्यादा ऊंची बोली लगे, इसके लिए उन्होंने घोषणा कर दी कि जो भी नीलामी में उनसे वह अंगूठी लेगा, उसको वे अपने हाथ से उसे पहना देंगे।
एक सज्जन ने 50 रुपए की बोली लगाई और नीलामी उन्हीं के नाम पर खत्म हो गई, तो वायदे के मुताबिक उन्होंने वह अंगूठी उन्हें पहना दी। लेकिन सज्जन के पास 100 का नोट था। उन्होंने उसे दिया और बाकी के पचास रुपए वापस पाने के लिए वहीं खड़े रहे। थोड़ी देर बाद महात्मा ने उन्हें खड़े देखा और कारण पूछा तो उन्होंने उनसे अपने 50 रुपए वापस मांगे। लेकिन महात्मा ने यह कहकर उन्हें लाजवाब कर दिया कि हम तो बनिया हैं, हाथ आए हुए धन को वापस नहीं करते। वह दान का हो तब तो और भी नहीं। इस पर सभा में उपस्थित लोग हंस पड़े और सज्जन उन्हें प्रणाम करके खुशी-खुशी लौट गए।